ग़ज़ल
लहू ,चराग़ जलाते हैं रात भर , अपना
कहीं दिखाती है तब रूप ये सहर अपना
दुआयें माँ की दिखाती हैं जब असर अपना
बलायें भूल ही जाती हैं सब हुनर अपना
किसी भी हाल में माँ को न कोई ठेस लगे
लहू से, ख़ुद के,सींचती है वो शजर अपना
वफ़ा की राह में जबसे रखा क़दम मैंने
पता-ठिकाना, मुझे याद है, न घर अपना
शिकस्त है ये यक़ीनन मेरी मुहब्बत की
बना न पाया किसी को मैं उम्र भर अपना
ज़ुल्म इंसान का जब हद से गुज़र जाता है
जमके बरसाती है कुदरत ये तब कहर अपना
भूल पाता नहीं पल भर को तुझे , मेरे वतन
याद आता है हर घड़ी, वो घर-शहर अपना
किसी के नूर से रोशन है ये महफ़िल मेरी
बना लिया है अब उसे ही राहबर अपना
बनाई है तेरी तस्वीर यूँ मुसव्विर ने
कि रख दिया है कलेजा निकालकर अपना
दिया है साथ सदा हौसलों ने , ‘भान’ मेरा
हुआ ख़ुशी से मुकम्मल हर-इक सफ़र अपना
— उदयभान पाण्डेय ‘भान’
(सहर-सुबह, शजर-वृक्ष, मुसव्विर-चित्रकार , राहबर-रहनुमा)
वाह वाह ! बहुत खूब !!
पाण्डेय जी ग़ज़ल अच्छी लगी .