सामाजिक

कामकाजी नारी, फिर भी घर में बेचारी

आज की नारी बेशक पढ़ी लिखी है, पुरुष के साथ कंधे से कन्धा मिलकर चल रही है, घर की अर्थव्यवस्था चलाने में सहयोग दे रही है या कहीं कहीं तो एक मर्द की तरह पूरा घर ही संभाल रही है. लेकिन फिर भी क्या घर में उसे पुरुष के बराबर दर्जा मिल पाया है? क्या उसे उतनी ही अहमियत प्राप्त होती है जितनी कि घर के कमाऊ पूत को प्राप्त होती है? सोच में पड़ गए न? इसका जवाब आप, मैं और हम सब जो सच कहना और सुनना पसंद करते हैं जानते हैं और वह जवाब है नहीं, अब तक भी नहीं. लेकिन क्यूँ नहीं मिल पाया है. कामकाजी औरत को बराबरी का दर्जा, जबकि काम तो वह पुरुष से भी ज्यादा लगन मेहनत और समर्पण से करती है? क्यों पति को परमेश्वर और स्त्री को दासी कहकर पुकारा जाता है जबकि यही दासी अगर काम करना बंद कर दे तो पूरा परिवार दासता और भीख मांगने की कगार पर आ जाए? घर में स्टेटस सिम्बल बढाने वाली चीजें आना बंद हो जाए, महंगे मोबाइल, सोफे झाडफानुस यह सब इस महंगाई के जमाने में एक आदमी की तनख्वाह से खरीद पाना तो संभव नहीं, फिर भी घर के बोझ को उठाने वाले दोनों हाथों में से एक को छोटा और दुसरे को बड़ा कहा जाता है.

इस सबका जिम्मेदार हमारा रूढ़िवादी समाज, हमारी पुरातन परम्पराएं और हमारा पिछड़ी सोच का होना है. और यह सोच केवल पुरुष की ही नहीं स्त्रियों की खुद की भी है. स्त्रियाँ कामकाजी होते हुए भी पति से घर के कार्यों में सहयोग लेने, अपनी तनख्वाह अपने पास रखने और अपनी इच्छाएं प्रकट करने में आज भी संकोच करती हैं. वह अपने पति को परमेश्वर एवं स्वंय को दासी का दर्जा देकर खुद को गौरवान्वित महसूस करती हैं. घर की बुजुर्ग महिलाएं जैसे सास इत्यादि कामकाजी महिला की नौकरी को उसकी आवारागिर्दी करना या पुरुषों की तरह उच्छ्रंखल होना समझती हैं. ऐसे में उसे घर और घरवालों के जूते के नीचे दवाये रखने के लिए उसपर अत्याचार किये जाते हैं. तोहमतें लगाई जाती हैं. हमारे वेदपुरानो और प्राचीन ग्रंथों ने औरतों के चार कार्य निर्धारित किये हैं-

कार्येशु दासी, भोज्येशु माता

 कर्मेशु मंत्री, शयनेशु रंभा

अथार्थ एक स्त्री को पुरुष के लिए दासी के सामान कार्य करना चाहिए, माता के सामान भोजन बनाकर खिलाना चाहिए, काम में उसकी एक मंत्री की तरह सहयोग देना चाहिए और रात को श्रंगार कर रम्भा की तरह शयन सुख देना चाहिए. अब आप ही सोचिये जिस देश की संस्कृति, ग्रन्थ और परम्पराएं पुरुष को यह सिखाती हैं की औरत तुम्हारे लिए फोर इन बन सर्वेंट है तो पुरुष कैसे अपनी अर्धांगिनी की इज्ज़त कर सकेगा. हमारे यहाँ के महाकाव्यों के रचयिता विद्वान् पुरुष को यह विद्या कविता के माध्यम से सिखाते हैं –

ढोर, गंवार शूद्र पशु नारी

यह सब ताडन के अधिकारी

दूसरा महाकाव्य रचयिता स्त्री को भरी सभा में सरे आम नग्न करवाता है. और उसे वस्तु की तरह उपयोग में लेते हुए किसी अन्य पात्र द्वारा जूए में हरवा देता है.

जिस देश में ऐसे महाकाव्य ऐसी स्त्री विरोधी और अपमानित करने वाली विषय सामग्री को पूजा जाता है वहां क्या घरेलू क्या कामकाजी हर प्रकार की स्त्री को बराबरी तो क्या कोई भी दर्जा मिलना संभव नहीं है.

कामकाजी स्त्रियों की राह का रोड़ा अक्सर उसके परिजन ही बनते हैं. चाहे स्त्री शिक्षित हो या अशिक्षित घरवालों का सहयोग उसे नहीं प्राप्त होता. आप अशिक्षित स्त्रियों का उदाहरण देखें –पूरा दिन दूसरो के घर काम करती पत्थर तोडती घास काटती थकी हारी ये मजदूर औरतें घर पहुंची हैं तो इनके शराबी पति इनपर चरित्रहीनता का लांछन लगाते हुए इनकी मेहनत की कमाई अपनी ऐयाशियों के लिए हड़पकर इनकी बेरहमी से पिटाई करते हैं. उसके वावजूद ये शोषित नारी अपनी सहनशीलता और मजबूरी के कारण सब अन्याय सहते हुए भी घर और बाहर की चक्की के दो पाटों के बीच बुरी तरह पिसती रहती है. शिक्षित कामकाजी महिलाओं की जिन्दगी अशिक्षित से थोड़ी बेहतर होती है मगर बराबरी का दर्जा उसे भी नहीं मिल पाता. उसे काम छोड़कर घर संभालने की सलाह घर में मिलती है. उसके बॉस के साथ उसकी कामकाजी बात्रों को भी मटरगश्ती समझा जाता है. उसे तलाक की धमकियाँ मिलती हैं. हकीकत यह है कि जब तक भारतीय पुरुषों की सोच नहीं बदलेगी पुरातन परम्पराओं पर रोक नहीं लगेगी, स्त्री ही स्त्री को नहीं समझेगी. महिला कामकाजी हो या घरेलू उसका दामन और शोषण भी नहीं थमेगा.

— सपना मांगलिक

 

 

 

 

सपना मांगलिक

नाम – सपना मांगलिक जन्मतिथि -17/02/1981 जन्मस्थान –भरतपुर वर्तमान निवास- आगरा(यू.पी) शिक्षा- एम्.ए, बी.एड (डिप्लोमा एक्सपोर्ट मेनेजमेंट ) सम्प्रति– उपसम्पादिका- आगमन साहित्य पत्रिका, इन दिनों documentry निर्माण में सक्रिय, स्वतंत्र लेखन, मंचीय कविता, ब्लॉगर, फेसबुक पर काव्य-सपना नाम से प्रसिद्द ग्रुप जिसके देश विदेश के लगभग पांच हज़ार सदस्य है . संस्थापक– जीवन सारांश समाज सेवा समिति, शब्द-सारांश (साहित्य एवं पत्रकारिता को समर्पित संस्था) सदस्य- ऑथर गिल्ड ऑफ़ इंडिया, अखिल भारतीय गंगा समिति जलगांव,महानगर लेखिका समिति आगरा, साहित्य साधिका समिति आगरा,सामानांतर साहित्य समिति आगरा, आगमन साहित्य परिषद् हापुड़, इंटेलिजेंस मिडिया एसोशिसन दिल्ली, गूगनराम सोसाइटी भिवानी, ज्ञानोदय साहित्य परिषद् बेंगलोर प्रकाशित कृति- (तेरह) पापा कब आओगे, नौकी बहू (कहानी संग्रह), सफलता रास्तों से मंजिल तक, ढाई आखर प्रेम का (प्रेरक गद्य संग्रह), कमसिन बाला, कल क्या होगा, बगावत (काव्य संग्रह), जज्बा-ए-दिल भाग–प्रथम, द्वितीय, तृतीय (ग़ज़ल संग्रह), टिमटिम तारे, गुनगुनाते अक्षर, होटल जंगल ट्रीट (बाल साहित्य) संपादन – तुम को ना भूल पायेंगे (संस्मरण संग्रह), स्वर्ण जयंती स्मारिका (समानांतर साहित्य संस्थान) प्रकाशनाधीन– इस पल को जी लें (प्रेरक संग्रह), एक ख्वाब तो तबियत से देखो यारो (प्रेरक संग्रह) विशेष– आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर निरंतर रचनाओं का प्रकाशन सम्मान- विभिन्न राजकीय एवं प्रादेशिक मंचों से सम्मानित पता- एफ-659, बिजलीघर के निकट, कमला नगर, आगरा 282005 (उ.प्र.) दूरभाष – 09548509508,7599163711, [email protected]

One thought on “कामकाजी नारी, फिर भी घर में बेचारी

  • विजय कुमार सिंघल

    आपका लेख अच्छा है, लेकिन आपने पुराने ग्रंथों से जो उदाहरण दिए हैं उनका अर्थ सही नहीं समझा है.
    श्लोक में जो चार गुण हैं वे अच्छी पत्नियों के हैं. ये उनके कर्तव्य नहीं हैं. उनके कर्तव्य तो सात वचनों में बताये गए हैं जो फेरों के समय दिए जाते हैं.
    इसी प्रकार राम चरित मानस की चौपाई का सन्दर्भ से अलग करके अर्थ किया है. यह चौपाई समुद्र का कथन है जो स्वयं जड़ था. यह किसी विद्वान का कथन नहीं है. जैसे किसी फिल्म में खलनायकों के भी डायलाग होते हैं. क्या हम उनको सही मान लें?
    इसी तरह आपके लेख की कुछ अन्य बातों पर आपत्ति उठाई जा सकती है. पर जाने दीजिये.

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