सूख गई संजीवनी जड़
सूख गई संजीवनी जड़
भोर किरण जो
सेवाओ से सवेरा लायी
समाज – देश उसका ऋणी
संग – साथ , जग में
खुशियों की कोहिनूर बनी
वे किरण थी अरुणा शानबाग।
लेकिन एक दिन
दुःख के मेघ मडराए
जंजीरों में बाँध के उसे
जहरीले नाग ने
लूटी उसकी लाज
बेरहमी का ये गूंगा समाज।
नीर में ढला तूफ़ान
कोमा तम में छायी प्रात
रिस्ते रहे साँसों के घाव
झेले चार दशक दो साल
तन – मन का अशक्त पड़ाव
घर वालों ने छोड़ा साथ।
मानवता के मसीहे
हुए उसके अपने
करने लगे उसका
जीवन रोशन
संवारते कई हाथ
करे पूरा देश गुमान।
लेकिन कह न पाई
अपनी व्यथा – कथा
पतझड़ी जीवन तरु से
धीरे – धीरे झड़ी सारी पत्तियां
सूख गई संजीवन से संजीवनी जड़
लेकर अंतिम साँस।
बहुत अच्छी श्रृद्धांजलि !
aabhaar vijay ji