आईना बोलता है
केजरीवाल और नजीब जंग, में छिड़ी हुई है एक अजीब जंग। आज दिल्ली को राज्य का दर्जा दिये जाने के बाइस साल बाद इस दर्जे के औचित्य पर सवाल उठ रहे हैं। दरअसल, खालिस राजनीतिक उल्लू सीधा करने की गरज़ से लिये गये निर्णय बुद्धिमता से परे होते हैं और भविष्य में परेशानी का कारण भी बनते हैं। इसका उदाहरण आज हमारे सामने है।
संविधान की धारा 239एए, राज्य सरकार के वे थोड़े बहुत अधिकार जो उसे प्राप्त हैं, को भी उपराज्यपाल की सहमति का मोहताज बना देती हैं। राज्य सरकार कोई कानून नहीं बना सकती क्योंकि इसकी संरचना में विधान परिषद है ही नहीं। आम सरकारी नियुक्तियों के लिये भी उसे उपराज्यपाल का मुँह ताकना पड़ता है। कोई भी महकमा राज्य सरकार के सीधे दायित्व में नहीं आता है। मेरी समझ में यह नहीं आता है कि फिर यह सरकार बनाने की सारी प्रक्रिया किस लिये है? और जो चुन कर आये हैं, वो क्या तबला बजाने के लिये चुने गये हैं? चुनाव का तमाम खर्च और चुने गए प्रतिनिधियों की तनखावाहें क्या जनता के धन का दुरुपयोग नहीं हैं? क्या इस चुनी हुई सरकार की अकर्मण्यता जनता की इच्छा का अपमान नहीं है?
यह सब सवाल अभी तक इसलिए नहीं उठे थे क्योंकि केन्द्र और राज्य सरकार एक हुआ करती थीं । उनमें मतभेद नहीं उतपन्न हुए थे। राज्य सरकार का कोष क्या होता था, कहाँ जाता था इस पर विवाद करना उतना ही बेमानी है जितनी की दिल्ली की चुनी हुई सरकार । ऐसा नहीं है कि इस तरह की समस्या का अनुमान राजनीतिक दलों को नहीं था। उसका हल उनके पास सरकार को न चलने देने में था, जैसा कि केजरीवाल के प्रथम अवतार में देखने को मिला । परन्तु मौजूदा स्थिति, जिसमें विपक्ष है ही नहीं, इन दलों की कल्पना के परे थी। केन्द्र और राज्य में विरोधाभास तो बहुत देखने को मिलता है पर जैसा दिल्ली में है वो नायाब है।
सरकार को पूर्ण अधिकार न दिये जाने के पक्षधरों का कहना है कि देश की राजधानी होने के कारण सुरक्षा व्यवस्था का सवाल बड़ा कारण है, जो मुझे हास्यास्पद लगता है। दिल्ली के सरकारी संस्थानों की सुरक्षा जिनके हाथ में है (के रि पु ब) उन्हीं के द्वारा दूतावासों और वी आई पी मोहल्लों की सुरक्षा भी करायी जा सकती है। इसके लिये शहर की पुलिस और प्रशासनिक सेवा को उपराज्यपाल के हाथों में रखने का क्या औचित्य है? ये महकमे शहर की व्यवस्था के लिये हैं ना कि वीआईपी ड्यूटी के लिये ।
दिल्ली में जो कुछ हो रहा है उससे एक बात जो तय है वो ये कि भाजपा अपनी हार को हजम नहीं कर पा रही है। नजीब जंग जैसे दल बदलू और पक्षपाती उपराज्यपाल के द्वारा वो जनता द्वारा सर्वसम्मति से चुनी हुई सरकार को नाकारा सिद्ध करने पर तुली हुई है। गृह मंत्री हँस कर समस्या से किनारा कर लेते हैं, गृह राज्य मंत्री को पूर्वोत्तर महिला का अपमान सरकार के कामकाज से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है, तो भाजपा के प्रवक्ता अश्विनी उपाध्याय को केजरीवाल द्वारा संविधान का अपमान, बाबा साहब भीम राव अंबेदकर का अपमान दिखाई दे रहा है। अंबेदकर क्यों ? डा. राजेंद्र प्रसाद, या दादा भाई नौरोजी, या गोविंद वल्लभ पंत, या मौलाना आज़ाद, या संविधान सभा के बाकी सदस्यों का अपमान क्यों नहीं? क्या अंबेदकर ने अकेले ही संविधान लिखा था? कभी कभी हमें इन प्रवक्ताओं की मंशा पर शक होने लगता है, जो हर परिस्थिति में अपने मतलब का रंग भरने की कोशिश करने लग जाते हैं।
केन्द्र सरकार प्रायोजित इस जंग का समाधान अंततोगत्वा सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप बिना संभव नहीं नज़र आता है। और ये अब हमेशा के लिये तय हो भी जाना चाहिये ।
जब तक दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा नहीं दे दिया जाता ऐसी समस्याएं पैदा होती रहेंगी, वह भी तब जब राज्य में केजरीवाल जैसे अराजकतावादी की सरकार हो.
और जो अजीब नजीब जंग कर रहे हैं, या उनसे करवाया जा रहा है, वो ?
संविधान विशेषज्ञों के अनुसार उपराज्यपाल का अधिकार बड़ा है.