माटी की महक
अपना घर , गांव , तालुका , ज़िला राज्य , और देश किसको प्रिय नही है। उस मिट्टी से निकलने वाली रवि रश्मि की आभा किसको भावविभोर नही करती है , प्रातः काल का सुहाना मौसम किसको आनन्ददायी नही लगता। अपनेपन का अहसास रोम -रोम को रोमांचित कर देता है। रिमझिम – रिमझिम करती हुई जल की किरणों को देखकर ऐसा लगता है जैसे मेघों से आंख मिचौली कर रही है। तरु पल्लवों पर पड़ी हुई जल की बूँदे सीप से निकली हुई मोती की तरह अपनी आभा को बिखेर कर स्वयं से इठला रही हैं। हम भी किसी मोती से कम नही, आखिर मोती देता क्या है, हम तो किसान की चाहत हैं। उसकी अभिलाषा और उसके जीवन का आधार हूँ। उसकी बगिया का सृजनहार हूँ। पपीहे के जीवन का आधार हूँ= स्वाति नक्षत्र की वह बूंद हूँ ,,,मोतियों का नूर हूं , फिर भी कितना गतिशील हूँ। हमारी चाहत में लोग आंखे बिछाये रहते है /मेरे प्यारे कब आओगे।
माली निशिदिन करता ध्यान , कृषक मुझे माने भगवान।
जीव -जन्तु सब मुझको प्यारे , हम उनकी आंखों के तारे।
पथिक मुझे देख हरसाये , नूतन भाव हृदय मेआये।
मेरी महिमा का गुण गान ,, फिर भी ना जाने इंसान।।
राज किशोर मिश्र ‘राज’
बहुत खूब .
आदरणीय सादर नमन धन्यवाद एवम् आभार
अच्छा लिखा है !
आदरणीय सादर नमन धन्यवाद एवम् आभार