गीतिका : रावण बसते गली- गली
सतयुग त्रेता मे इक रावण, कलियुग में रावण गली-गली,
बदल-बदल के भेष रोज, सीता को हरते गली गली ||१||
रंग रूप इनके अनेक, माया, छदम इनके स्वरूप
पहन सभ्य परिधानो को, ये नाटक करते गली-गली ||२||
सूनी सड़कों पर चलते हैं, रक्त -रक्त इनका गरल
डॅंक मारते ये विषधर, मानवता डसते गली-गली ||३||
कलुषित मानसिकता की कुंठा में, मन मे उमड़ता नित जहर
मानव की कहर वेदना बन, विभीषिका भरते गली-गली ||४||
मानवता खंडित करते हैं, धरती में मचती त्राहि- त्राहि
ऐसे रावण कलियुग मे आए, सीता को बचाते गली-गली ||५||
भेष बदल कर लूट रहे हैं, रिश्ते -नाते तोड़ रहे हैं
किस पर आज करूँ विश्वास, घर आँगन मे बसते गली-गली ||६||
राज किशोर मिश्र ‘राज’
अच्छी गीतिका !
आदरणीय जी आपकी पसंद एवम् हौसला अफजाई के लिए कोटिश आभार