क्या है जिंदगी !
कभी समंदर उठते सैलाबों का, कभी एक ज़लज़ला ,
कभी आग से जलते हुए सहरा सी है यह ज़िंदगी,
फिर भी हंस हंस के ज़ी ले, यह खुदा की इनायत है,
एक बार मिलने वाली, किसी की अमानत है ज़िंदगी,
तेरे हर सुकर्म पर तेरे ही आगे झुकती है ज़िंदगी
तेरे हर दुष्कर्म पर तुझ को ही सताती है ज़िंदगी,
तेरी हर खुशी का खज़ाना अपने में समेटे है ज़िंदगी,
तेरे हर इशारे पर चलने को भी मज़बूर है यह ज़िंदगी,
यह सब तो अब तेरे ही हाथ है,की कैसी हो तुम्हारी ज़िंदगी,
प्रभु के नाम लेकर सद्कर्म करने का नाम ही है ज़िंदगी,
ऐ बन्दे, बस तू वही कर जिसमें उस प्रभु की पूरी रज़ा हो,
बन्दे ऐसा कुछ कभी न कर जिससे तेरा खुदा तुझसे खफा हो,
जी ले, प्रभु का सिमरन कर, सत्कर्म कर, करले कुछ परोपकार,
सिर्फ एक बार मिलती है सबको, ख़ुशी से जीने के लिए यह ज़िंदगी,
लाख कोशिश कर, जान देकर भी दोबारा नसीब ना होगी यह ज़िंदगी,
— जय प्रकाश भाटिया
बहुत खूब !