धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर का यथार्थ स्वरूप

ओ३म्

ईश्वर किसे कहते हैं। ईश्वर इस संसार वा ब्रह्माण्ड को बनाने वाली सत्ता को कहते हैं। वही सत्ता इस संसार को बनाकर इसका संचालन करती है तथा इस सृष्टि की आयु वा अवधि पूर्ण होने पर इसका संहार या प्रलय करती है। हमारी आंखों के समाने यह सारा संसार प्रत्यक्ष है। इसमें किसी को किसी  प्रकार का कोई भ्रम नहीं है। अतः यह सृष्टि व इसकी रचना निभ्र्रान्त सत्य है। इस संसार को ईश्वर रूपी जिस सत्ता ने बनाया, उसका स्वरूप कैसा है, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से हमारे मन में उठा करता है। यदि हम धर्म ग्रन्थों के चक्कर में पड़ गये तो वेद व सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों को छोड़कर सर्वत्र भ्रान्तियां ही भ्रान्तियां हैं। कोई सृष्टिकर्त्ता ईश्वर को आसमान पर किसी एक स्थान पर निवास करने वाला बताता है जिसका स्वरूप उन प्रसिद्ध मतों के पुस्तकों में एक मनुष्य के समान वर्णित है। ऐसी मनुष्यरूपी स्वरूप वाली सत्ता से यह विशाल व अनन्त ब्रह्माण्ड बन नहीं सकता है, यह सर्वथा असम्भव है। इसके लिए तो उसका चेतनस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वशक्तिमान, पूर्व सृष्टि रचनाओं का ज्ञान व अनुभव का होना आवश्यक है। सृष्टि रचना का कोई उद्देश्य भी होना चाहिये अन्यथा ऐसा कार्य जिसका कोई उद्देश्य न हो, उसे किसी पागल मनुष्य के समान सत्ता द्वारा किया गया कार्य ही माना जाता है। आईये,  इन थोड़े से प्रश्नों पर विचार कर लेते हैं। इससे हमें ईश्वर सम्बन्धी कुछ बोध अवश्य प्राप्त होगा।

हम समझते हैं कि ईश्वर को जानना कठिन नहीं है। कठिन तो तब होता जब ईश्वर की रची हुई सृष्टि हमारे सामने प्रत्यक्ष विद्यमान न होती। इस सृष्टि ने ईश्वर को जानने का कार्य सरल कर दिया है। इस सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में रचना विशेष देखकर हम साधारण चिन्तन व विचार करके इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यह कार्य मनुष्यों व मनुष्यों के समूह द्वारा कदापि सम्भव नहीं है। एक फल अनार को देखते हैं तो उसके अन्दर जो अनार के छोटे छोटे सुन्दर व लाल रंग के दाने अगणित संख्या में सुगठित भरे हुए हैं व जिसमें मीठा स्वादिष्ट रस भरा हुआ है, इनको यथार्थ रूप में बनाने का कार्य कोई भी मनुष्य कदापि नहीं कर सकता। जो कार्य मनुष्य न कर सकें परन्तु जिसका अस्तित्व संसार में है, वह सब रचनायें व कार्य अपौरूषेय कार्य अर्थात् ईश्वर द्वारा किये गये ही हो सकते हैं क्योंकि ईश्वर से भिन्न अन्य कोई सत्ता संसार में विद्यमान नहीं है। जैसा कि एक अनार है वैसी ही सारी वनस्पतियां हैं, फल हैं, यह जड़ जगत जिसमें सूर्य, पृथिवी, चन्द्र, तारे, नक्षत्र आदि हैं, इन सहित सभी प्राणी हैं जो केवल ईश्वर के ही कार्य व रचनायें हैं। ईश्वर के कुछ नियम हैं जिसमें कुछ कार्यों में वह मनुष्यों की भी सहायता लेता है। उन कार्यों को मनुष्य सहज व स्वभाविक रूप से करते हैं जैसा कि सन्तान की उत्पत्ति व रचना का कार्य तो परमात्मा करता है परन्तु इसमें वह माता पिता की सहायता लेता है। अब हम यह तो जान गये कि सृष्टि की रचना उसने की है तो इस पर विस्तार से विचार करने पर हम इन्हीं निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वह सर्वज्ञानमय अर्थात् सर्वज्ञ होना चाहिये। किसी निर्माण कार्य को शक्ति की आवश्यकता पड़ती है अतः ईश्वर का शक्तिशाली होना भी आवश्यकता है। इस कारण ईश्वर को सर्वशक्तिमान माना गया है। वह ऐसा ही है, इसका प्रमाण ईश्वर प्रदत्त ज्ञान चार वेद हैं जिसमें ईश्वर ने अपने स्वरूप का स्वयं प्रकाश किया है। हम यहां यजुर्वेद के एक मन्त्र 40/8 को प्रस्तुत करते हैं जिसमें ईश्वर के स्वरूप का प्रकाश किया गया है। मन्त्र है-स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरम्शुद्धमपापविद्धम् कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।” इस मन्त्र का अर्थ है कि वह परमात्मा सब में व्यापक, शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् जो शुद्ध, सर्वज्ञ, सब का अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयंसिद्ध परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है। यह सगुण स्तुति अर्थात् जिस-जिस गुण से सहित परमेश्वर की स्तुति करना वह सगुण, (अकाय) अर्थात् वह कभी शरीर धारण जन्म नहीं लेता, जिस में छिद्र नहीं होता, नस-नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता और कभी पापाचरण नहीं करता, जिसे क्लेश, दुःख, अज्ञान कभी नहीं होता, इत्यादि जिस-जिस रोग, द्वेषादि गुणों से पृथक मानकर परमेश्वर की स्तुति करना है वह निगुर्ण स्तुति है। इस से फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे गुण, कर्म, स्वभाव अपने भी करना। जैसे वह न्यायकारी है तो आप भी न्यायकारी होंवे। जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुणकीर्तन करता जाता है और अपने चरित्र को नहीं सुधारता, उसका स्तुति करना व्यर्थ है।

इस वेदमन्त्र का अर्थ स्वामी दयानन्द जी का किया हुआ है। इस वेदमन्त्र में सगुण व निर्गुण भक्ति व उपासना का जो विधान ईश्वर द्वारा मन्त्रार्थ में बताया है उसे प्रस्तुत कर उन्होंने अपनी सूक्ष्म बुद्धि व ऋषित्व का प्रमाण दिया है। उनके वेद भाष्य व सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ से पूर्व वेदमन्त्रों के इस प्रकार के अर्थ कहीं विद्यमान नहीं थे। पहली बात तो यह है कि महर्षि दयानन्द से पूर्व किसी ने भी वेद के मन्त्रों के अर्थ हिन्दी में किये ही नहीं थे, अतः वेदों का ज्ञान आम व सामान्य जनता से कोशों दूर था। जो अन्य भाष्यकारों के संस्कृत में अर्थ उपलब्ध थे व हैं, वह यज्ञपरक प्राप्त होते हैं। सायण आदि वेदभाष्यकारों का मानना था कि वेदों का मुख्य प्रयोजन केवल यज्ञों को करना व कराना ही है। महर्षि दयानन्द ने इसका खण्डन करते हुए मनुस्मृति आदि ग्रन्थों की साक्षी से बताया कि वेद सम्पूर्ण धर्म ग्रन्थ होने के साथ ईश्वर से प्राप्त शुद्ध ज्ञान की संहितायें है जिसमें इस ब्रह्माण्ड वा संसार की सभी सत्य विद्यायें विद्यमान हैं। ऐसे अनेक मन्त्र वेदों में हैं जिसमें ईश्वर के सत्य स्वरूप का विधान व वर्णन है। वेदों जैसा ईश्वर, जीव, प्रकृति, मनुष्यों के कर्तव्यों व विद्याओं का वर्णन संसार के किसी अन्य ग्रन्थ व धार्मिक पुस्तकों में सुलभ व विद्यमान नहीं है। अतः वेदों का सर्वोपरि महत्व निर्विवाद है। ईश्वर, जीवात्मा व कर्तव्यों का अन्धविश्वास व भ्रान्तिरहित सत्य ज्ञान केवल वेदों से ही प्राप्त होता है।

वेदों एवं संसार के सभी धर्म ग्रन्थों में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि वेद ईश्वर से प्राप्त हुए हैं तथा अन्य संसार का सभी साहित्य और धर्म ग्रन्थ जिसमें हमारे ब्राह्मण ग्रन्थ, 6 दर्शन, 11 उपनिषद्, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, गीता व पुराण आदि ग्रन्थ हैं, मनुष्यकृत अर्थात् मनुष्यों की रचनायें हैं। हमारे सभी ऋषि, अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, मनु, पतंजलि, गौतम, कपिल, कणाद, जैमिनी, व्यास, दयानन्द आदि भी मनुष्य ही थे। यहां तक कि श्री राम, श्री कृष्ण आदि भी ऐतिहासिक पुरूष होने से मनुष्य ही थे। संसार के आरम्भ से लेकर आज तक जिस मनुष्य आदि प्राणी ने जन्म लिया है वह केवल व केवल मनुष्य वा जीवात्मा ही थे। ईश्वर का न अवतार कभी हुआ है और न हो सकता है और न हि ईश्वर को इसकी आवश्यकता है। ईश्वर की सभी सन्तानें है और सभी एक समान हैं, इसका प्रमाण वेदों में मिलता है। ईश्वर किसी व्यक्ति विशेष को सन्देशवाहक या धर्म प्रर्वतक के रूप में भी नहीं भेजता। यदि भेजता होता तो आज उसके सन्देशवाहक और प्रवर्तक की सबसे अधिक आवश्यकता न केवल भारत अपितु विश्व के अनेक देशों में थी। इनका कहीं पर भी न होना अवतारवाद व मतप्रर्वतकों का खण्डन स्वतः कर रहा है। अतः वेद ही परम प्रमाण व ईश्वरकृत होने से सर्वमान्य व सर्वाचरणीय हैं। वेद ही मानवमात्र का धर्मग्रन्थ है, इतर ग्रन्थों की वेदानुकूल शिक्षायें या मान्यतायें ही स्वीकार्य हैं। वेद विरूद्ध कोई भी बात किसी भी मत में क्यों न हो, वह स्वीकार नहीं की जा सकती।

धर्म का सम्बन्ध ईश्वर की आज्ञा, शिक्षाओं का पालन करना व तदनुसार आचरण करना है। यह तभी सम्भव है कि जब ईश्वर ने स्वयं कोई ज्ञान दिया हो। वेद के रूप में यह ज्ञान हमारे सामने है जो लगभग 2 अरब वर्षों से यथापूर्व शुद्ध रूप में उपलब्ध है। वेद जिस संस्कृत में हैं, वह लौकिक व मानुष संस्कृत भाषा से भिन्न अपौरूषेय व अलौकिक संस्कृत भाषा है जिसे ईश्वरीय भाषा कहा व माना जाता है। वेदज्ञान के बाद की पुस्तकें मनुष्यों द्वारा अस्तित्व में आईं भाषाओं में होने के कारण ईश्वरीय व अपौरूषेय ज्ञान की कसौटी पर विफल होती हैं। इन तथ्यों पर विचार कर विवेकी बन्धुओं को वेद को धर्म ग्रन्थ मानने के साथ अन्यों से भी मनवाने का प्रयास करना चाहिये। यह भी ईश्वरीय कार्य व आज्ञा का पालन है जिसका उल्लेख महर्षि दयानन्द ने यह कहकर किया है कि सत्य को मानना व मनवाना मुझे अभीष्ट है।

हमने लेख के आरम्भ में सृष्टि रचना के प्रयोजन की चर्चा की है। वेद व वैदिक साहित्य से इसका भी सन्तोषजनक उत्तर मिलता है। इस प्रश्न का उत्तर उपर्युक्त उद्धृत यजुर्वेद मन्त्र में भी दिया गया है। वेद ने बताया है कि वह परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है।” इस पर विचार करने व अन्य सन्दर्भों से यह ज्ञात होता है कि परमेश्वर अपनी जीव रूपी शाश्वत्, अनादि, नित्य, अनन्त संख्या वाली प्रजा के पूर्वकृत पाप-पुण्यों का दुःख व सुख रूपी फल देने के लिए इस सृष्टि की रचना करता है। हम संसार में देख रहे हैं कि अनन्त जीव नाना प्राणी योनियों में जन्म लेकर सुख व दुःख भोग रहे हैं। मृत्यु के बाद जन्म व जन्म के बाद मृत्यु क्रमशः होता आ रहा है। तर्क व प्रमाणों से भी परमात्मा, सभी जीव व सूक्ष्म कारण प्रकृति अनादि, अविनाशी, अमर सिद्ध होती है। अतः सृष्टि बनने व बिगड़ने, जन्म-मृत्यु व कर्मानुसार जन्म व सुख-दुःखों का भोग चलता चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा। इससे ईश्वर द्वारा सृष्टि रचने का प्रयोजन जीवों को कर्मानुसार सुख व दुःख देना सिद्ध होता है।

इस संक्षिप्त लेख से ईश्वर के अस्तित्व की पुष्टि होने के साथ उसके स्वरूप का संक्षिप्त उल्लेख भी हो गया है। हम अनुग्रह करते हैं कि पाठक सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन कर ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति सहित प्रायः सभी विषयक प्रश्नों व शंकाओं के उत्तर जानने का पुरूषार्थ करें इससे उन्हें जन्म-जन्मान्तर में भूरिशः लाभ होगा। यदि कोई पाठक सत्यार्थ प्रकाश की पीडीएफ प्रति प्राप्त करना चाहे तो हमें हमारे इमेल उंदउवींदंतलं/हउंपसण्बवउ पर सम्पर्क करें। ईश्वर अनुग्रह कर हम सबको सद्बुद्धि अर्थात विवेक सहित हमारी आत्मा में सद्ज्ञान का प्रकाश करें।

मनमोहन कुमार आर्य

 

4 thoughts on “ईश्वर का यथार्थ स्वरूप

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा लेख मान्यवर ! स्वामी दयानंदजी ने ईश्वर के विषय में जो लिखा है वही सत्य है। उसमें भ्रम का कोई अवकाश नहीं है।

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते महोदय। लेख पढ़ने, प्रतिक्रिया देने एवं लेख की विषय वस्तु से सहमत होने के लिए आपका आभार एवं धन्यवाद।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन भाई , लेख हमेशा की तरह अच्छा लगा .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते। विनम्र हार्दिक धन्यवाद।

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