(1)
जीवन की आड़ी तिरछी राहों पर आगे बढ़ता चल
बाधा से घबराना कैसा सोच समझ पग धरता चल
जन काँटों को चुन एक तरफ कर समतल कर दे राहों को
दुःखी हृदय में प्रेम जगा कर मुस्कानों से भरता चल
(2)
सुजला सुफला शस्य श्यामला सपनों में ही शेष रह गया
बहुत किया दोहन धरती का मरुथल ही परिवेश रह गया
हरे-भरे तरु और लताएं गए काल के गाल में समा
पंछी तो उड़ चला गगन को पिंजर का अवशेष रह गया
(3)
रंग-तूलिका लिए हाथ में निकल पड़ी हूँ नंगे पांव
नवल चित्र निर्मित हो कैसे मन में सदा यही है भाव
जीवन के कोरे पृष्ठों पर भाव उकेरूं कुछ मन के
धरती की धानी चूनर को बैठ रंगूं पीपल की छाँव
लता यादव
One thought on “कुछ मुक्तक”
Comments are closed.
bahut sundar muktak aadarniy