चक्रव्यूह !
इस जिंदगी का क्या भरोसा
कब शाम हो जाय ,
भरी दोपहरी में कब
सूरज डूब जाय ….
उम्मीद के पतले सेतु के सहारे
मकड़ी सा आगे कदम बढ़ा रहे है
और खुद के बुने जाले में फंसकर
छटपटा रहे है |
क्या यह मेरा भ्रम है ?
कि जाले मैं ने बुने हैं ,या
मुझे बनाने वाले ने
मेरी क्षमता की परिक्षण हेतु
मुझे अभिमन्यु बना कर
इस चक्रव्यूह में डाला है ?
मुझे अभिमन्यु नहीं
अर्जुन बनना पड़ेगा
चक्रव्यूह को तोड़कर
बाहर निकलना पड़ेगा
मुझे बनाने वाले के सामने
अपनी योग्यता का प्रमाण देना होगा |
मेरा ज्ञान सिमित है
ज्ञान-क्षितिज के पार
है गहन अँधेरा
आँख खुली हो या बंद
कुछ नहीं दीखता, सिवा अँधेरा |
यही अँधेरा मेरी अज्ञानता है
हर इन्सान इसी अन्धकार में भटक रहा है
ज्ञानियों ने ज्ञान के प्रकाश से
बाहर निकले हैं अन्धकार से |
अँधेरी राह में यात्रा कितनी भी
दुर्गम क्यों न हो,
चीरकर उस अँधेरे को
मुझे भी आगे जाना होगा
हर हालत में मुझे
इस परीक्षा को पास करना होगा |
© कालीपद “प्रसाद”
अच्छी कविता !
umda kawita