कविता : कैसे कह दोगे
कैसे कह दोगे
कैसे कह दोगे कि खुद को मैं इतना भी समझ पाया
अशको को अपनी आँखो मे यूं चुपके से छुपा पाया
यादों के हँसी पलो को कभी ज़िन्दगी मे भुला पाया
कैसे कह दोगे ……..
याद ना करूंगा उन पलों को जिनमे खुद को ना आज़मा पाया
रूह तक हो गई थी घायल जिन अल्फाज़ो से उनको कभी झुठला पाया
कैसे कह दोगे… . .
अरमानो की कहीं मायुमियत कहीं ज़िम्मेदारियों का सिलसिला था समाया
ज़िन्दगी कितनी अपनी थी कितनी औरों के लिए जीता आया
कैसे कह दोगे……
पूछेगी सवाल फिर अकेले मे खुद की परछाई भी जो कभी वक्त ऐसा आया
क्यों अधूरी अधूरी सी लगी ज़िन्दगी जब लगा कि खत्म अब दास्तां कर आया
कैसे कह दोगे…….
कामनी गुप्ता, जम्मू
अच्छी कविता !
बहुत अच्छी कविता लगी .