गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

ज़िन्दगी मानो सफर है
ऊँची नीची सी डगर है ।
पाँव में हो थकन कितनी
उसे चलना ही मगर है ।
नज़ारे जो देखता है
हमारी उस पर नज़र है ।
रहगुज़र है ज़िन्दगी तो
राह पर मेरी गुज़र है ।
ज़रा तुम हुशियार रहना
बना रहज़न राहबर है ।
जो चैन मेरा लूट भागा
दिल उसी का मुन्तज़िर है ।
अंग रक्षक साथ ले लो
राह आगे पुर ख़तर है ।
नाम जिस का है सुधेश
देखना कैसा बशर हे ।

–सुधेश

सुधेश

हिन्दी के सुपरिचित कवि और गद्य की अनेक विधाओं , जैसे आलोचना , संस्मरण , व्यंग्य , यात्रा वृत्तान्त और आत्मकथा , के लेखक । तीस पुस्तकें प्रकाशित । दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफ़ेसर पद से सेवा निवृत्त । तीन बार विदेश यात्राएँ । अमेरिका , बृटेन , जर्मनी , हंगरी , चैकोस्लोवेकिया ( तब के ) दक्षिणी कोरिया की यात्राएँ । ३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैक्टर १० दिल्ली ११००७५ फ़ोन ९३५०९७४१२०

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह ! बेहतरीन ग़ज़ल !

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