कविता

क्योंकि तुम नदी हो !

कई सभ्यताओं का विकास
तुम्हारे ही तट पर हुआ
आज
कई नव विकसित सभ्यातायें
तुम्हारे अस्तित्व को ही
खतरे में
डालने की योजना बना रहे हैं
तुम्हारे जल को दूषित कर
उसमें फेंके जाते हैं
कूड़े, कचड़े और कई ऐसे पदार्थ
जो तुम्हे मैला करने के लिये काफी हैं
कारखानों के विषाक्त कण मिलकर
तुम्हारे तन और मन को बोझिल कर जातें हैं
पहले तुम पूजी जाती रही थी
अब दुही जा रही हो
दूधारु गाय के समान
क्योंकि
तुम, नदी हो ।

श्वेता रस्तोगी

श्वेता रस्तोगी

शोध छात्रा (कलकत्ता विश्वविद्यालय) विभिन्न पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित

One thought on “क्योंकि तुम नदी हो !

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह ! बहुत सुन्दर !!

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