कल तक कलकल गान सुनाता बहता पानी
कल तक कलकल गान सुनाता बहता पानी
बोतल में हो बंद छंद अब भूला पानी
प्यास बुझाती थी जो सबकी दानी नदिया
है तलाशती हलक हेतु थोड़ा सा पानी
हाथ कटोरा धरे द्वार पर जोगी सावन
मानसून से माँग रहा है भिक्षा, पानी
जब संदेश दिया पाहुन का काँव-काँव ने
सूने घट की आँखों में भर आया पानी
रहता है अब महलों वाले तरण-ताल में
पनघट का दिल तोड़ दे गया धोखा पानी
जाने कब जल-पूरित हो पट पड़ा सकोरा
खुली छतों से नित्य पूछती चिड़िया पानी
तैर रहा था जो युग-युग से भव-सागर में
वही “कल्पना” अब कलियुग में डूबा पानी
–कल्पना रामानी
बहुत खूब .
अच्छी ग़जल
बहुत सुन्दर ग़ज़ल !