आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 4)

पहली समस्या

ऊपर मैं लिख चुका हूँ कि मेरे आने से पहले कम्प्यूटर सेंटर में अधिक काम नहीं होता था। 5-5 अधिकारियों के होते हुए भी बहुत कम काम वहाँ होता था और बड़े-बड़े काम बाहर ही प्राइवेट कम्पनियों से कराये जाते थे। मुख्य रूप से एडवांसशीट का डाटा तैयार करने तथा सुधार करने का काम बाहर होता था। सेंटर पर केवल उनको छापा जाता था। एडवांसशीट भी नियमित नहीं सुधारी जाती थी, बस किसी तरह खानापूरी कर दी जाती थी। लेकिन हमारे आने के बाद पता नहीं क्यों पहली बार मण्डलीय कार्यालय ने यह स्पष्ट आदेश निकाल दिया कि सारी एडवांसशीटों का डाटा यहीं तैयार किया जाएगा अर्थात् बाहर से कोई काम नहीं कराया जाएगा।

एडवांसशीट में बैंक की शाखाओं द्वारा जो ऋण बाँटे जाते हैं उनका पूरा विवरण लिखा जाता है और उसे हर तीन महीने बाद सुधारा जाता है, ताकि पता चल जाये कि ऋण की वसूली की क्या स्थिति है। प्रत्येक शाखा में हजारों ऐसे खाते होते हैं। अभी तक यह कार्य लापरवाही से किया जा रहा था, परन्तु उस समय सभी बैंकों को अपने खराब ऋण घटाने पर अधिक जोर देने का आदेश दिया गया था। शायद इसी कारण हमारे मंडलीय कार्यालय द्वारा तत्काल सारी एडवांसशीट तुरन्त तैयार करने का आदेश दे दिया गया। उस पर तुर्रा यह कि सारा कार्य वहीं करना होगा, बाहर से कुछ नहीं कराया जाएगा।

उत्तरप्रदेश में बिजली की हालत सदा से खराब रही है और उस समय तो हालत और भी ज्यादा खराब थी। इसलिए अगर हम सभी अधिकारी और कर्मचारी लगातार रोज लगे रहते, तो भी वह कार्य दो-तीन माह से पहले समाप्त होना असम्भव था। इसलिए हमने अपने सहायक महा प्रबंधक महोदय से निवेदन किया कि कुछ कार्य हम यहाँ कर लेंगे और कुछ कार्य बाहर करा लिया जाये, ताकि काम समय पर समाप्त हो जाये। इसके साथ ही हमने निवेदन किया कि कम्प्यूटर चलाने के लिए जनरेटर किराये पर ले लिया जाये, ताकि बिजली के कारण काम न रुके।

जनरेटर किराये पर लेने के लिए वे सिद्धान्त रूप में तैयार हो गये, लेकिन मंडलीय कार्यालय में उस समय मुख्य प्रबंधक के रूप में श्री एस.के. घोष पदस्थ थे (मेरे बगल के फ्लैट में रहने वाले मुख्य प्रबंधक श्री पी.के. कपूर पहले ही प्रधान कार्यालय स्थानांतरित हो चुके थे।) पता नहीं क्यों घोष बाबू जनरेटर किराये पर लेने का आदेश निकालने में टालमटोल कर रहे थे और बार-बार अड़ंगा लगा रहे थे। एक दिन मैं इस मामले पर बात करने घर से सीधा मंडलीय कार्यालय गया। वहाँ घोष बाबू फिर टालमटोल कर रहे थे और यह कागज लगाओ-वह कागज लगाओ करके मामले को लटका रहे थे।

उसी दिन संयोग से हमारे सहायक महाप्रबंधक महोदय श्री पाण्डेय हमारे कम्प्यूटर सेंटर को देखने प्रातः 10 बजे से पहले ही पहुँच गये। मैं उस समय मंडलीय कार्यालय में था और मुझे पता ही नहीं था कि पाण्डेय जी कहाँ गये हैं। मेरे कम्प्यूटर केंद्र पर जब उन्होंने अधिकांश अधिकारियों को अनुपस्थित देखा तो बहुत नाराज हुए और हाजिरी रजिस्टर में सबकी अनुपस्थिति लगा दी। फिर सबको धमकी दे गये कि यदि अगस्त तक (याना दो महीने में) एडवांसशीट का काम पूरा नहीं हुआ तो सबको सस्पेंड कर दूँगा। इससे सारे अधिकारी डर गये। जब दोपहर को मैं वहाँ पहुँचा, तो मुझे सारी बात मालूम पड़ी।

तब मैंने यह उचित समझा कि सारे मामले को स्पष्ट करते हुए एक पत्र पाण्डेय जी को लिखा जाये और उनसे निवेदन किया जाये कि जल्दी जनरेटर की अनुमति दे दें और कुछ कार्य बाहर कराने की भी अनुमति दे दें। उस पत्र में मैंने यह भी लिख दिया कि ऐसे मामलों में वरिष्ठ अधिकारियों के सहयोग की आशा की जाती है। इसको पढ़कर शायद पाण्डेय जी ने यह समझा कि मैं उन पर असहयोग करने का आरोप लगा रहा हूँ। इससे वे बहुत नाराज हुए। उन्होंने दो दिन बाद ही मुझे मंडलीय कार्यालय बुला लिया।

जब मैं उनके कमरे में घुसा तो मेरा पत्र उनके सामने मेज पर खुला रखा था। मुझे देखते ही उन्होंने नमस्ते के जबाव में अंग्रेजी में लिखकर कहा- “क्या मैं तुम्हें आज ही सस्पेंड कर दूँ?” यह सुनकर एक बार तो मैं सकते में आ गया, फिर शान्ति से अंग्रेजी में ही उत्तर दिया- “सर, सस्पेंशन कोई समाधान नहीं है। यदि मुझे सस्पेंड करने से कोई समस्या हल हो सकती है, तो मैं खुशी से सस्पेंड होने को तैयार हूँ।” मेरे इस जबाव से वे एकदम शान्त हो गये। फिर मैंने उन्हें एडवांसशीट की समस्या समझायी। मैंने उन्हें बताया कि पिछले तीन-चार साल से एडवांसशीट लगभग सारी हाथ से ही लिखी जा रही है, बहुत कम डाटा कम्प्यूटर पर है और जो डाटा कम्प्यूटर पर है वह बहुत पुराना और अधूरा है। रिकार्डों की संख्या ज्यादा है, इसलिए इसमें बहुत समय लगने की सम्भावना है। इसके अलावा बिजली की बहुत समस्या है और अभी तक जनरेटर की अनुमति नहीं मिली है।

तब उन्होंने मुख्य प्रबंधक श्री एस.के. घोष को बुलाया और पूछा कि ‘जनरेटर की अनुमति क्यों नहीं दी है?’, तो वे बगलें झाँकने लगे और कहने लगे कि अनुमति दे दी है। मैंने पूछा- “कहाँ है अनुमति?”, तो वे कोई जबाव नहीं दे सके। तब पाण्डेय जी ने मुझसे कहा कि जनरेटर लगवा लो, अनुमति की औपचारिकता बाद में होती रहेगी। इस पर मैंने उन्हें बहुत-बहुत धन्यवाद दिया और कहा कि हम आज ही जनरेटर लगवा लेंगे और कल से काम पूरे जोर-शोर से करना शुरू कर देंगे।

जब मैं इस सफलता के बाद अपने कम्प्यूटर सेंटर पहुँचा और अपने साथी अधिकारियों को सारी बातचीत बतायी, तो वे बहुत खुश हुए और आश्चर्य व्यक्त किया कि मैंने अपनी हिम्मत और बुद्धिमानी से वह विकट मामला सरलता से हल कर दिया। वे पूछने लगे कि आपमें इतनी हिम्मत आयी कहाँ से? मेरा कहना था कि ऐसी हिम्मत पैदा करने के लिए 25 साल तक रोज खाकी नेकर पहनकर शाखा जाना पड़ता है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि इसके बाद हम सब एकदम तनावमुक्त हो गये और कार्य भी भली प्रकार चलने लगा।

तभी अचानक हमारे सहायक महाप्रबंधक श्री पाण्डेय जी के स्थानांतरण का आदेश आ गया। वे सिलीगुड़ी मंडल में भेजे जा रहे थे। उनके स्थानांतरण की मैंने कल्पना भी नहीं की थी और न हम ऐसा चाहते थे। चिन्ता भी थी कि नये साहब जाने कैसे होंगे। शीघ्र ही पाण्डेय जी की विदाई हुई। वाराणसी की तरह यहाँ कानपुर में भी हमारी अधिकारी यूनियन का कोई अधिकारी उनके विदाई समारोह में नहीं गया, लेकिन मैं विशेष तौर से उसमें शामिल हुआ। मैंने उन्हें माला भी पहनायी, पैर छुए  और चलते समय अपनी गलतियों के लिए क्षमा भी माँगी। उन्होंने बड़े प्यार से मेरे कंधों को थपथपाते हुए कहा- “कोई गलती नहीं है।” पाण्डेय जी वास्तव में महान् थे। मैंने एक बार उन्हें अपनी लिखी कम्प्यूटर की पुस्तक भेंट में दी थी, जिसकी वे बहुत प्रशंसा करते थे। हालांकि राजनीति के कारण आधे अधिकारी उनके विरोध में थे, परन्तु वे किसी का भी अपमान नहीं करते थे। मैं विदाई के दिन के बाद उनके दर्शन नहीं कर सका, क्योंकि कुछ ही समय बाद वे रिटायर हो गये और फिर एक दिन उनके देहान्त का समाचार प्राप्त हुआ।

नये साहब

श्री पाण्डेय जी की जगह श्री एस.के. सिन्हा हमारे सहायक महाप्रबंधक बन कर आये। जैसा कि नाम से स्पष्ट है वे बिहार के रहने वाले थे और आम बिहारियों की छवि के अनुरूप पूरी तरह अक्खड़ थे। वे खैनी बहुत खाते थे और खैनी की दोनों तरफ खुलने वाली डिबिया उनकी मेज पर ही पेपरवेट की तरह रखी रहती थी। हालांकि काम के मामले में वे बहुत सहयोगात्मक और सख्त भी थे। जब वे पहली बार हमारे कम्प्यूटर सेंटर पर पधारे, तो एडवांसशीट के काम की समस्या जानकर उन्होंने तत्काल आधा काम बाहर कराने की अनुमति दे दी। इससे हम एकदम तनावमुक्त हो गये।

सिन्हा जी में बस एक ही खराबी थी कि वे किसी को भी सबके सामने बुरी तरह डाँट देते थे। हमारे कम्प्यूटर सेंटर पर तो वे कभी-कभी ही आते थे और फोन पर ही डाँटते थे, लेकिन मंडलीय कार्यालय में सभी अधिकारियों का पाला उनसे रोज ही पड़ता था। वे मुख्य प्रबंधक को भी चपरासियों के सामने बुरी तरह डाँटकर अपमानित करते थे। इस कारण वहाँ से दो मुख्य प्रबंधक हृदय की बीमारी लेकर गये। इनमें एक तो श्री एस. के. घोष थे, जिनकी चर्चा ऊपर आ चुकी है, और दूसरे थे श्री अरुणाभ राय। इसके कारण उनकी छवि अच्छी नहीं थी। वे अधिकारियों को छुट्टी देने में भी बहुत परेशान करते थे और कभी किसी की छुट्टी मंजूर नहीं करते थे। इसका समाधान हम लोगों ने यह निकाला कि हम बिना छुट्टी लिये चले जाते थे और बाद में मेडीकल सर्टीफिकेट लगा देते थे। वे इस पर भी नाराज होते थे, परन्तु कुछ कर नहीं सकते थे। जब लगभग दो साल बाद वे स्थानांतरित हुए, तो मंडलीय कार्यालय में उनके विदाई समारोह में सब लोगों ने जमकर अपनी भड़ास निकाली और उन्हें खूब खरी-खोटी सुनायी। वे बेचारे चुपचाप सुनते रहे और चले गये।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

8 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 4)

  • डॉ ज्योत्स्ना शर्मा

    सरल भाषा में सारगर्भित प्रस्तुति आदरणीय !

  • Man Mohan Kumar Arya

    लेख आरम्भ से अन्त तक पढ़ा। कठिन व जटिल कार्यों को धैर्य व सूझबूझ से हल करने की आपकी शैली बहुत अच्छी लगी। यह समस्याओं को यथार्थ रूप में समझने और उनका सही समाधान करने की आपकी योग्यता का ही परिणाम था कि आपने अपने वरिष्ठ रूष्ट अधिकारी को सन्तुष्ट कर दिया और उन्हें तर्कसम्मत उचित समाधान के लिए सहमत कर लिया। पूरा लेख ही प्रभावशाली एवं प्रेरणादायक है। मैंने कुछ घण्टे पहले ही लेख पढ़ लिया था। प्रतिक्रिया लिखने बैठा तो नैट अत्यन्त स्लो हो गया तथा कार्य नहीं कर रहा था। इसलिए विलम्ब हो गया। आपका हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार मान्यवर ! मैं आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा ही कर रहा था. आपके शब्दों से मुझे बहुत बल मिलता है और यह संतुष्टि भी होती है कि मैंने सही कार्य किया था.

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद महोदय। धर्म के दस लक्षण है। यह जीवन की सफलता के आधार हैं। धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेयं, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी (बुद्धिमत्ता), विद्या, सत्य व अक्रोध। महर्षि दयानंद ने जब नवम्बर १८६९ में काशी शास्त्रार्थ में ३३ पंडितों से धर्म के लक्षण बताने को कहा तो सभी निरुत्तर थे। विद्या का कितना ह्रास हो चूका था। आपमें यह सभी गुण मैं अनुभव करता हूँ। मेरी दृष्टि में यही आपकी सफलता के आधार हैं। मैं अल्पज्ञ हूँ और गलत भी हो सकता हूँ। सादर।

        • विजय कुमार सिंघल

          आप ग़लत हैं, मान्यवर ! मुझमें कुछ गुणों से ज्यादा अवगुण भी हैं। यह ज़रूर है कि बड़ों के आशीर्वाद से मेरे अवगुण प्रकट नहीं होते।

          • Man Mohan Kumar Arya

            धन्यवाद महोदय। जीव अल्पज्ञ है अतः ऐसा (जीवन में कुछ मामूली अवगुणो का होना) प्रायः सभी या अधिकांश के साथ होता है। मैं समझता हूँ कि यदि किसी व्यक्ति में गुण अधिक व अवगुण कम हैं और वह अपने अवगुणों से परिचित है और उन्हें दूर करने की उसमे भावना व प्रयत्न है, तो उसे सज्जन या धर्मात्मा कह सकते हैं। हां प्रत्येक व्यक्ति को संध्या करते हुए अपने अवगुणो को विचार कर उन्हें दूर करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना व प्रयत्न अवश्य करने चाहिए। यहाँ यह वेद मंत्र सटीक लगता है – “ओम विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यदभद्रं तन्नासुव।। . आपका पुनः धन्यवाद। वैसे मैं आपसे सहमत हूँ।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई ,सारा शुरू से अंत तक पड़ा . काम चाहे छोटा हो या बड़ा , उन में मुश्किलें आती ही हैं और उन को जित कर आगे बढना ही महानता है , जो आप ने किया ,इसी लिए आप जिंदगी में इतनी सफलता को प् सके .

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, भाई साहब ! सफलता में बड़ों का आशीर्वाद भी एक बड़ा कारण होता है.

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