ईश्वर का स्व-रूप क्या है ?
जितने लोग उतने ही सोच ,उतने ही रूप l इसीलिए कहा गया है ,”मुंडे मुंडे मतिर्भिन्न “l यह बात शत प्रतिशत हिन्दू धर्म के लिए लागू होता है l हिन्दू धर्म में तैंतीस कोटि देव देवियाँ हैं l इन तैंतीस कोटि देव देवियों की उत्पत्ति की कहानी शायद इसी सिद्धांत को प्रतिपादित करती है l उस समय धरती पर शायद तैंतीस कोटि लोग रहते थे और हर एक व्यक्ति ने भगवान का एक रूप की कल्पना किया होगा और उसकी पूजा किया होगा l किसी ने भगवान् को पुरुष रूप में पूजा की तो किसी ने स्त्री (देवी ) के रूप में और किसी ने स्त्री पुरुष के संगम जैसे शिव लिंग,अर्ध नारीश्वर l किसी की मान्यता में कोई बंदिश नहीं थी l इस प्रकार तैंतीस कोटि देव देवियों की उत्पत्ति हो गयी l चूँकि हिन्दू धर्म दुसरे धर्म की भांति प्रवर्तित धर्म नहीं है l किसी धर्म गुरु,महात्मा ,पैगम्बर या अवतारी पुरुष द्वारा शुरू नहीं किया गया है , यह सनातन काल से जीवन जीने की पद्धति हैl ईश्वर और ईश्वर की आराधना के लिए सर्वमान्य कोई एक मत नहीं है जो दुसरे धर्म में है l इसीलिए इसे धर्म न कहकर हिन्दुस्तानी जीवन पद्ध्यति कहना ठीक होगा l कोई बंदिश न होने के कारण लोग मन मानी ढंग से ईश्वर की कल्पना की l किसी ने निराकार माना तो किसी ने साकार रूप में पूजा की l साकार रूप में भी एक रूपता नहीं है ,मानव से लेकर बानर ,पशु,पक्षी ,साँप ,मछली और पेड़ पौधों के रूप में भी ईश्वर की पूजा की l इसके आगे इन सभी देव देवियों की अस्तित्व और महत्व को प्रतिपादित करने के लिए अनेको मन गड़ंत कहानियाँ लिखकर प्रचारित किया गया है किसी ने यह नहीं सोचा की साधारण मनुष्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा l साधारण व्यक्ति इन विविधताओं में फंस कर द्विविधा में पड गए हैं, यह निश्चय नहीं कर पा रहे हैं कि किस रूप में भगवान् की पूजा करें l तैंतीस कोटि देव देवियों में किसकी पूजा करें और किसको छोड़े ? जिसकी पूजा नहीं करेंगे वो नाराज हो जायेंगे और हामारे परिवार पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ेगा l ऐसा किस्से कहानियों द्वारा बाताया गया है l धर्मभीरु जनता में यह अंध विश्वास का जाल फैला हुआ है l उन्हें कौन समझाय कि ईश्वर की कल्पना कल्याण कारी है ,विनाशकारी नहीं है l हलाकि पूजा से खुश होकर भगवान् ने प्रत्यक्ष रूप में न किसी का भला किया है न नाराज होकर किसी की नुकसान किया है l भावुकता में लोग किसी भी घटना को अपने विश्वास के अनुसार भगवान् की कृपा और दंड से जोड़ लेते हैं l
इसी प्रकार साफ सफाई को लेकर भी लोगों में अलग अलग धारना है l कुछ लोग कहते हैं कि भगवान की पुजा साफ़ सुथरा होकर करना चाहिये l इसीलिए वे नहा -धोकर नए वस्त्र पहनकर मंदिर मस्जिद जाते है l
परन्तु दुसरे लोगों का कहना है तन में तो हमेश गन्दगी भरी रहती है ,उसको पूर्ण रूप से साफ करना असंभव है l बाहरी सफाई तो हो जाती है परन्तु अन्दर की सफाई रह जाती है l
इसीलिए तन जैसा भी हो, मन शुद्ध होना चाहिए l मन में शुद्ध भक्ति भाव होना चाहिए lमन में हिंसा ,द्वेष,ईर्ष्या ,घृणा ,,भेद-भाव नहीं होना चाहिए l सबके प्रति सम भाव होना चाहिए तभी ईश्वर खुश होते है l
तीसरे प्रकार के लोग जिनमे ज्यादातर साधू संत होते हैं l वे “आत्मशुद्धि ” की बात करते है अर्थात आत्मा की सफाई l अब उन साधू संतों को कौन समझाए कि साधारण जन को तो अभी तक पता ही नहीं है कि आत्मा है क्या चीज और रहती है कहाँ l फिर उसकी सफाई कैसे करे ?
इन सब बातों से यही प्रतीत होती है कि ईश्वर दर्शन के मामले में इंसान उन छै अंधों जैसे हैं जो हाथी देखने चले थे और सब ने हाथी का अलग अलग रूप बताया l जिसने पूंछ पकड़ा उसने हाथी को रस्सी जैसा समझा ,जिसने पैर पकड़ा ,उसने खम्भा जैसे समझा ,जिसने कान पकड़ा ,उसने हाथी को सुपा जैसा समझा l इसी प्रकार बांकी तीनो ने भी हाथी को अलाग अलग रूप में वर्णन किया किन्तु सबका वर्णन मिलाकर भी पूर्ण हाथी का स्वरुप सामने नहीं आया l अलग अलग धर्म के धर्मगुरू या स्वघोषित गुरु इन अन्धो की भांति अपनी अपनी कल्पना की घोड़ी को दौड़ा रहे हैं परन्तु ईश्वर के पूर्ण रूप का कल्पना नहीं कर पा रहे है l वास्तव में ईश्वर का स्वरुप मनुष्य के कल्पनातीत l एक चिंटी हाथी के शरीर पर चढकर भ्रमण तो कर सकता है परन्तु पूर्ण हाथी को अपनी आँखों से देख नहीं सकता वैसे ही इंसान इतना छोटा है और ईश्वर इतना महान हैं कि ईश्वर का समग्र रूप की कल्पना करना भी इंसान के लिए असंभव है | |
कालीपद “प्रसाद ”
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अच्छा लेख ! आपकी बातें मननीय हैं।