कविता

वो बरगद का ठूठ!

वो बरगद के वृक्ष का ठूठ !
जो खड़ा है निस्तेज ,कुरूप
पथ के कोने में वीरान सा
मूक दर्शक है कई शताब्दियों
के बनते बिगड़ते इतिहास का

वो बरगद के वृक्ष का ठूठ!
सैकड़ो पखेरुओं का था ठिकाना
गूंजती थी कलरव से इसकी डाली डाली
मस्त झूमता था सुन पपीहे की पीहू
प्रेमिका सी लिपटी रहती थी बेले इससे

वो बरगद के वृक्ष का ठूठ !
न जाने कितनी किलकारियों
ने गाये है गीत यौवन के इसकी छाँव में
न जाने कितनी बार सहा है दर्द
अंतिम विदा देके उन के प्रौढ़ होने का

वो बरगद के वृक्ष का ठूठ !
झेले हैं दंश इसने कई युद्ध के
देखे हैं इसने जलती हुई झोपड़ियां
गिरती हुई लाशे, लुटती हुई अस्मत
रोया है यह भी उनके साथ खूब चीख के

वो बरगद के वृक्ष का ठूठ!
देखा है इसने कच्ची सड़क का
कंक्रीट से पक्का हो जाना
आधुनिकता की दौड़ में इंसान का
अपनों को ही रौंध के आगे निकल जाना

वो बरगद के वृक्ष का ठूठ!
लेकिन ठहरिये अभी !!आशा है !
धड़क रहा है एक नन्हा सा दिल
ठूठ की आगोश में ,कपोल खिली है
पलट रहा है बचपन फिर से उस ठूठ का !

वो बरगद के वृक्ष का ठूठ!
सीखा रहा है मनुष्य के जीवन को
बुझने से पहले जला जाओ ऐसी लौ
जो रौशन करे तमस में
आनेवाले हर नव जीवन को

– केशव

संजय कुमार (केशव)

नास्तिक .... क्या यह परिचय काफी नहीं है?

One thought on “वो बरगद का ठूठ!

  • विजय कुमार सिंघल

    दार्शनिकता भरी बेहतर कविता !

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