स्मृति के पंख – 29
राज व पृथ्वी राज की अपनी अलग दुनिया थी। मेरी मदद को उनका दिल करता कि कब पिताजी का हाथ बटायेंगे, ऐसे ही उनके ख्वाब थे। कभी-कभी मैं उनकी बातें सुनकर हैरान हो जाता। अभी छोटे थे, फिर भी मुझे उनके विचार ओर हौसला पर हैरानी होती। कौशल्या देवी मेरी साली की शादी पर रमेश ओर केवल के मुण्डन संस्कार हुये। बच्चों का रहन-सहन अच्छा हो, घर के वातावरण पर खानदानी असर था। कोई यह न कहे कि मुझे गरीबी ने आ घेरा है। आमदनी अभी मामूली थी और खरचे जो होने थे, वह होते रहते। अब पाउंड खत्म होने के बाद जेवर भी खत्म होने लगे। राज की पोजिशन भी अपनी सहेलियों में बहुत अच्छी थी। वह सहेलियों को घर नहीं लाती थी, क्योंकि घर बहुत खराब हालत में था। आठवीं में राज फेल हो गई। वह नहीं चाहती थी कि उसका साल खराब हो। इसलिए उसने प्राइवेट ग्रांड कालेज में दाखिल करवाया।
उन्हीं दिनों स. निर्मल सिंह जी हमारे इलाके में रहने वाले थे और पहले ही यहाँ आकर बसे हुये थे। घण्टा घर के नजदीक उसकी घड़ियों की दुकान थी। उसकी इच्छा थी कि वह थोड़ी जमीन खरीद ले। वह हमें साथ लेकर वह जमीन दिखाने गया भी, जो दण्डी स्वामी के पीछे का इलाका था। 2 से 5 रुपये गज तक की जमीन बिकती थी, लेकिन हम इस काबिल नहीं थे कि सोच भी सकते। उस समय सिर्फ रोटी का ख्याल ही सामने था। इन्हीं दिनों वीरा बहन की शादी मेरठ में हुई। लीलाराम और राम लाल की शादी भी इसी वक्त में हुई। वीरा बहन की शादी पर जो कुछ मैं बनाकर ले जा सकता था ले गया। बेबे सीता देवी के कुछ रुपये मेरे पास थे। उन्होंने कहा- मुझे तो चूड़ियां बनवा दो, कुछ रुपया मेरा है, बाकी तुम्हारा होगा और इज्जत होगी की भाई ने रामलाल की शादी पर चूड़ियां दी हैं। मुझे भी बहुत अच्छा लगा। मैं तो उनकी सेवा को खुद ही सोचता रहता। लीलाराम की शादी पर पृथ्वी राज मेरे साथ गया था। इसके पहले लीलाराम रवालसर (हिमाचल प्रदेश) था। मेरे ससुराल वाले पहले रवालसर गये थे। बाद में सब तो आ गए, लीलाराम उधर ही रहा, क्योंकि महाराज गढ़ीकपूरा वाले वहीं थे। लीलाराम उनके पास ही रहा।
लुधियाना में मण्डी के नजदीक एक फैक्टरी में मेरे ससुर मजदूरी का काम करते थे। मेहनत का काम था। उनकी उमर और काम को देखते हुए मुझे बहुत तकलीफ होती, लेकिन दूसरे की मदद करना उन दिनों सोचना भी मुश्किल था, इसलिए दिल मसोस कर रह जाता। मुझे लीलाराम पर गुस्सा आता कि वह रवालसर में क्या कर रहा है, जबकि घर में रोटी की जरूरत है। ऐसा सोचकर मैंने एक खत महाराजजी को लिखा। कुछ अपने ससुर की तकलीफ और अपने घर की मजबूरी का लिखा कि आप लीलाराम को भेज दें, ताकि अपने पिताजी की कुछ मदद कर सके। फिर भी कुछ दिनों बाद ही लीलाराम आया। मलेरकोटला सब्जी मण्डी में अलीबक्श ईदो एक पुरानी फर्म थी। बुजुर्ग सज्जन थे। वह हमारी मदद करते रहते। माल लुधियाना हमारी दुकान पर भिजवाते और लुधियाने से केसर सिंह, सतनाम सिंह, संजीवन सिंह आदि ने मलेरकोटला से सामान लाना शुरू कर दिया। कभी-कभी हम भी मलरेकोटला चक्कर लगा आते। फिर मलेरकोटला सिंधी भाइयों की एक पार्टी थी स. लाल सिंह एंड को। वह भी माल लाने लगे।
अब पंजाब में भी फसल अच्छी होने लगी। हम लोग लुधियाना से माल बाहर को भिजवाने लगे। सहारनपुर एक पार्टी को माल भिजवाना शुरू किया। अच्छी पार्टी थी। फिर एक दूसरी पार्टी ने लिखना शुरू कर दिया। हमने उसे भी माल भिजवाया। पहली पार्टी से दूसरी पार्टी की बिक्री अच्छी आ जाती थी। जब हमारे 5-7 चालान चले गये थे। तब पहली पार्टी ने हमें लिखा कि जहाँ तुम माल भिजवा रहे हो, वहाँ से कुछ मिलने की उम्मीद मत रखना। सिर्फ कागजी बिक्री ही मिलेगी। तो हमने उन्हें रुपयों के बारे में लिखना शुरू कर दिया। जब रुपया न आया तो हमने कुन्दन लाल को भेजा कि जाकर रुपये भी ले आओ और पार्टी को भी देख आओ। कुन्दन लाल ने आकर कहा कि वे लोग तो बदमाश लोग हैं। लेटरपैड छपवा कर माल मंगवा लेते हैं और पैसे नहीं देते। वहाँ जाने पर बेइज्जती करते हैं। ऐसे लोगों से भी हमारा वास्ता पड़ा। फिर एक देहात ऐआली खुर्द से हमारे पास अरबी आनी शुरू हो गई। ताराचन्द बोली का काम करता था, मैं लिखने का। उस जमाने में ढेरियां लगाकर बोलियां होतीं और फिर तराजू से माल तुलता था। एक जमीदार था सरदार जीवन सिंह। जब 8 धारने तुल जाती थीं, तो वह एक सूतली को गांठ दे देता। जब पूरा माल तुल चुका, तो मेरे से पूछने लगा, कितना वजन हो गया। जब मैंने बतलाया कि इतना वजन हुआ, तो उसने सूतली निकाल कर गांठें गिननी शुरू कर दीं। जब उसको तसल्ली हो गई कि वजन पूरा है, तो उन गाँव वालों ने हमसे फिर कभी नहीं पूछा कि हमारा माल किस भाव बिका, कितना वजन हुआ। उनको पूरी तसल्ली हो गई।
अब रमेश और केवल भी स्कूल जाने लगे। गुड्डी (कमलेश) का जन्म सन् 51 में हुआ था और सन् 1951 से ही हमारे पास जम्मू से सेब का काम शुरू हुआ। पहले पहल लक्ष्मी दास एंड ब्रदर्स से और दूसरी बार कृष्ण लाल गुलाटी से काम शुरू किया। उनके बाद हंसराज, बलवंत राय, श्री चन्द, सीता राम और कई पार्टियों ने भी काम शुरू कर दिया। माल ज्यादा था और लागत मण्डी में ज्यादा न थी। जो माल बच जाता, हम अपने नाम डालकर लखनऊ, बरेली, हरिद्वार आदि भिजवा देते, जिससे माल तो निकल ही जाता, दिसावर (और शहरों में) नाम भी हो जाता। लेकिन अक्सर नुकसान ही रहता, फिर भी हम खुश थे कि कभी तो फायदा हुआ। दूसरा दिसावर से कुछ माल आना भी शुरू हो गया।
अब दुकान की रौनक थी और आमदनी का जरिया भी बनने लगा। मुझे सिनेमा का पूरा शौक था। अब फिर से जाना शुरू कर दिया और सुबह नाश्ते के वक्त अपने घर से मक्की की, आलू की और मूलियां की तली हुई रोटियां भी आने लगीं, जिसके लिए सब साथियों की रोजाना की आफर थी। वह बहुत जायकादार होती। नाश्ते के वक्त मेरे लिए जरूरी हो गया था की मक्की की रोटियां पकी हुई घर से जरूर आएं।
कुछ अरसा बाद पृथ्वीराज की इन्द्री पर फोड़ा निकल आया। फौज के डाक्टर को दिखाया उसने सलाह दी अस्पताल ले कर जायें अस्पताल दिखाने पर डाक्टर राय जो सर्जन थे उसने कही आपरेशन के बगैर कोई चारा नहीं, वरना बच्चे की मौत हो सकती है। वह सर्जन बंगाली था, वह अच्छा लायक डाक्टर था। आपरेशन के 4 दिन बाद उसने मुझे बतलाया- शुक्र है कि बच्चा बच गया। लेकिन उसे पेशाब करते वक्त जब मैं देखता था तो बजाए नाली के नीचे से पेशाब निकलता था। कई दफा डाक्टर से मैंने कहा भी, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। फिर वह दिन भी आ गया जिस दिन पट्टी खुलनी थी। जो अंदेशा था उसे अपनी आंखों से जब देखा, तो दिल फट गया कि हे भगवान क्या कर दिया तूने। मर जाता तो अच्छा था। पट्टी के खुलते ही पट्टी के साथ इन्द्री की नाली भी गिर पड़ी। डाक्टर राय ने मेरे आंसू पोंछे और तसल्ली दी कि जो कुछ तुमने देखा है, हमें इस बारे में ऐसा ही मालूम था। तुम्हें पहले नहीं बताया इसलिए कि शायद आप बर्दाश्त न कर सकें। उस बच्चे की जिन्दगी बच गयी। अगर आपरेशन न करते तो बच्चे का बचना मुश्किल था। हौसला रखो, कई लोग ऐसे भी शादी नहीं करते। तुम भी नहीं करते, ऐसा ही समझ लेना।
लेखक का सारा जीवन ही संघर्षों से भरा रहा है। ऐसी जीवन गाथायें ही सबको प्रेरणा देती हैं।
आत्मकथा लेख के संघर्षपूर्ण जीवन को पढ़कर उनके प्रति सहानुभूति हो रही है। कथा रोचक एवं प्रेरणादायक है।
मुश्किल जिंदगी और आखिर में बच्चे की इतनी तकलीफ ,उफ़ !