आत्मकथा

स्मृति के पंख – 31

पृथ्वीराज पर अनहोनी हो चुकी थी। उसकी सेहत के बारे में हर समय फिक्र रहती थी कि होनहार बच्चा था। छोटी सी उम्र में उसकी जहानत ओर काबलियत का मुझे एहसास होता, परन्तु मुझे लगता था मुझ पर तो अनहोनी हुई है। गुरुबानी का वह श्लोक याद आता है- ‘चिन्ता का की कीजिए जे अनहोनी होये। यह मार्ग संसार को नानक थिर नहीं कोये।’ अक्सर डा0 राय की बातें याद कर दिल को तसल्ली देता कि मौत के मुंह से तो बच गया है। अगर इस हालत में भी सेहत बहाल हो जाय, तो शुक्र कर दूँगा। लेकिन उसकी सेहत दिन ब दिन गिरती जा रही थी, इलाज में कभी कोताही नहीं की। उन दिनों इंसुलिन की शीशी का इंजेक्शन भी साढ़े 7 रुपये की थी और राशन का आटा भी साढ़े सात रुपये का आता था। अगर मुझे दोनों में से एक ही दिन दोनों की जरूरत होती, तो मैं आटा दूसरे दिन घर लाता, लेकिन इंसुलिन की शीशी जरूर आती। माली हालत इतनी कमजोर थी कि दोनों चीजें कभी-कभी इकट्ठे लाना मुश्किल हो जाती।

ऐसे में मुझे एक दिन ख्याल आया गढ़ीकपूरा वाले संत महाराजजी का। उन दिनों वह होशियारपुर में रहते थे। मैंने सवेरे हो जाने का प्रोग्राम बनाया, ताकि रात को वापिस आ सकूं। बसों की आवाजाही भी कम थी। कपड़े बदल कर लुंगी सिर पर रखी, लैम्प जलाने के लिए माचिस की तीली जलाई, तो उससे पगड़ी के शुमला को आग लग गई। तोहमात को न मानते हुए भी मुझे ऐसे लगा जैसे यह आग पूरी तरह मुझे चपेट में ले रही है। जो उत्साह दिल में था महाराजजी से मिलकर आशीर्वाद लेने का सर्द पड़ गया, फिर भी पृथ्वीराज को साथ लेकर मैं चला गया और दर्शन भी हो गये। उनका वैसे ही हंसता हुआ नूरानी चेहरा और पूरा आशीर्वाद मिलने पर मेरा मन खुश हो गया। माथा टेकने के बाद मैंने प्रार्थना की कि ऐसी अवस्था है, कृपा करें। उन्होंने अपने सेवक को बुलवाकर कर कहा डायरी में नोट कर लो लुधियाना से आने वाले राधाकृष्ण के लड़के के बारे में। मुझे और पृथ्वीराज को आशीर्वाद देने के बाद उन्होंने इतना जरूर कहा- तेरा पत्र आया था। मैं बीमार था, दूसरा कोई सेवक नहीं था। इसलिए लीलाराम को जल्दी नहीं भिजवाया था और फिर हँस दिये। मुझे कहने लगे- अगला हफ्ता इसी दिन आ जाना। बच्चे को साथ लाने की जरूरत नहीं। अगले हफ्ते जब मैं पहुँचा, तो थोड़ा समय पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया था। मैंने वापस आकर यह इत्तला अपने ससुरजी को कर दी कि महाराजजी चोला छोड़ गये हैं।

मैंने अपने गलाढेर वाले मकान का क्लेम किया था दो तीन दफा। पता चला कि क्लेम मंजूर नहीं होते, फिर भी मैं दरख्वास्त देता ही गया। आखिर में क्लेम मंजूर होने शुरू हुए। तफतीश के लिए उसी इलाके के लोग ही लगाये गये थे। इलाका मरदान के क्लेम तसदीक के लिए श्री हरिचन्द माटा, मुकर्रर थे। यह वह सज्जन थे, जिसने मेरी बन्दूक वाला केस लड़ा था। जब मैं उसके रू-ब-रू पेश हुआ तो उसने मुझे पहचान लिया और आम तौर पर जितना क्लेम किया होता, उतना मंजूर नहीं करते थे। आम लोगों ने बहुत नाजायज क्लेम भी किये थे। लेकिन हरिचन्द माटा का दफ्तर गलाढेर भी आया था। उसने हमारी दुकान और मकान भी देखा था। मैंने 22 हजार का क्लेम भरा था। उसने कहा तुम्हारे पूरे क्लेम की मैं तशदीक करता हूँ। मैंने कहा मास्टर साहब, मेरे भाई ने क्लेम नहीं किया। यह मकान हमारे दो भाइयों का है। आप आधा क्लेम मेरे नाम और आधा क्लेम उनके नाम कर देवें और मैंने उसे भ्राताजी का मेरठ का पता लिखवा दिया। इस तरह भ्राताजी को उनका आधा हिस्सा मिल गया।

दूसरी बात उन्होंने लाला धनीराम के बारे में मुझसे पूछा। कहने लगे भोलाराम धवन की दरख्वास्त है कि धनीराम हमारा चाचा था, उसकी अपनी कोई नरीना (लड़का) औलाद नहीं थी। उस जायदाद का क्लेम हमारा हक बनता है। मैंने भाई साहब से कहा कि धनीराम की लड़की दुर्गादेवी की शादी गोकुलचन्द से हुई थी। उसका लड़का यशपाल उस जायदाद का मालिक है। लाला धनीराम ने मरते समय अपनी जायदाद अपने पोते के नाम बनाई थी। उसने मेरा पूरा बयान नोट कर लिया। उसने बयान को सच माना और क्लेम का हकदार गोकुलचन्द को मानकर, जो यशपाल का पिता और गार्जियन था, भोलाराम की दरख्वास्त रद्द कर दी। लेकिन मुझे क्लेम के 11 हजार में से कुछ न मिला और हमने 10 हजार का कर्जा दुकान के लिए सरकार से लिया था, जिसमें मेरा पूरा क्लेम खत्म हो गया। दुकान में और किसी का क्लेम तो था नहीं, इसलिए मेरा पूरा क्लेम कर्जा में चला गया।

इन्हीं दिनों मेरी तबीयत बहुत खराब थी। न तो भूख लगती थी और सख्त कब्ज थी। मुझे आंखो में जर्दी महसूस होने लगी। लीलाराम मुझे देखने आया, मैं बैचेन था। वह डा0 हरिकिशन राज को बुला लाया। कुछ दिन तो उसका इलाज जारी रहा। फिर भी सेहत ठीक न हुई किसी ने एक देसी हकीम से इलाज करवाने का मशवरा दिया। जिसने दवाई के साथ-साथ बहुत ठण्डी चीजें इस्तेमाल करने को कहा। संतरा, मूली का रस, संदल का शर्बत, काफी दिन बाद कहीं आंखों का पीलापन ठीक हुआ और सेहत भी ठीक हो गई। कुछ दिन बाद परमानन्द मुझे देखने आया। तबीयत तो मेरी ठीक थी लेकिन उस दिन राशन घर में न होने से हमने अभी रोटी पकाने का कोई बन्दोबस्त नहीं किया था। परमानन्द को इस बात का पता चला तो उसने एक कनस्तर आटा व कुछ घी लाकर बहन को दे दिया। इसके बाद तकरीबन एक महीना बाद मैं काम पर जाने के काबिल हुआ।

रामलाल और सीता बेबे रांची से अब शिमला तब्दीली होकर आ गये थे। सुभाष भूआ के पास जाने की जिद करता। मैंने किसी आढ़ती के हमराह सुभाष को शिमला के लिए भेज दिया। रामलाल का पता मैंने लिख दिया था। न जाने इससे कहाँ खो गया। अब वह आढ़ती लोग बच्चे को घर भेजने को फिकरमन्द रहे, जिसका न सुभाष को पता है न उन्हें। भोलाराम धवन का जवाई, जिसने पहले पहल हमारे साथ भी काम किया था, अब शिमला मण्डी में काम करता था। उससे मालूम करने पर, जिसको रामलाल का घर मालूम था, सुभाष वो वहाँ छोड़ आया। भोलाराम धवन भाभीजी का चाचा था, उनकी चौड़ा बाजार में दुकान थी।

अब अलेहदा होने के बारे में किसी फैसले पर न पहुचने से मण्डी की तरफ से भी कुछ मुअजिज लोगों से फैसला न करा पाया। उन लोगों की पालिसी थी कि मैं ज्यादा से ज्यादा माली हालत में परेशान हो जाऊं और वह मेरी मजबूरी से फायदा उठा सके। इंसान की भारी कमजोरी गरीबी है। मैं भी ऐसी अवस्था में था। उनकी कोशिश थी कि मैं सब छोड़कर चला जाऊंगा। वह लोग जैसा ख्वाब देख रहे थे। वैसे उनका ख्याल तो मैं उनका मरते दम तक पूरा होने न दूँगा। अन्याय के साथ लड़ना जरूरी है, ऐसे विचार मन में आने से कभी तो सुबह होगी। इन दिनों अब हमारे फैसला के दौरान हमारी तरफ से भ्राताजी और उनकी तरफ से भोलाराम सालस मुकर्रर हुए। काफी दिन भ्राताजी को भी रुकना पड़ा। फिर भी कोई राह नजर नहीं आई।

एक दिन हम दोनों भाई मशवरा कर रहे थे। भ्राताजी ने पूछा कि उनकी मर्जी क्या है। मैंने कहा- दुकान का पिछला बड़ा फड़ जिन दो दुकानों के आगे पड़ता है, वह उनकी ख्वाईश है कि उनके पास रहे और हमारा ख्याल है कि नेताजी के नाम पर हमने नाम रखा है ‘सुभाष फ्रूट्स’ वह हमारे पास रहे। भ्राताजी से मैंने कहा कि नाम का मैं उन्हें मैं 2000 रु. आफर कर चुका हूँ, लेकिन वह नहीं मानते तब भ्राताजी ने कहा के तेरे ख्याल में वह दुकान की क्या कीमत डालने का इरादा रखते हैं। मैंने कहा उस दुकान का शायद 2000 रु. रखें। अब इस बात पर मुताफिक हो गये कि नाम के 3000 रु. और उनकी मनपसन्द वाली दुकान के 2500 रुपये हमने मोल डालना है। भ्राताजी ने कहा कि अगर उन्होंने दोनों चीजें लेने से इनकार कर दिया, तो पूरी रकम हमें देनी पड़ेगी। मैंने कहा वह दोनों चीजें नहीं छोड़ेंगे। इस बात पर हम दोनों भाई मुताफिक हो गए। हमने अपने फैसले की पर्ची सालसों के हाथ में देनी थी और उन्होंने भी यही करना था। बाकी लेन देन देखना था। अब मैंने उनकी पसन्द वाली जगह की कीमत 3000 और नाम के 2500 लिख कर दे दी। लेकिन उन्होंने जो रकमें लिखी थीं, उसके हिसाब (तनासफ) से हमें नाम मिल गया और उन्हें दुकान, लेकिन उसमें फर्क सिर्फ 200 रुपये का था, जो हमने अदा करने थे। जिस चीज के मैं 2000 रु. देने को तैयार था वह 200 रु. में तय हो गई और फैसला भी हो गया। हिसाबात जितने भी थे आधे-आधे लिख लिये। उनके पास तो रुपया था भी, काम बदस्तूर चालू रख सकते थे और मुझे ज्यादा परेशानी थी।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 31

  • Man Mohan Kumar Arya

    ऐसा लगता है की श्री राधा कृष्ण कपूर जी की जिंदगी उनकी अग्नि परीक्षा ले रही थी। अंधकार और रात्रि के बाद सूर्य अवश्य उदय होता है। उनके जीवन में सूर्योदय की प्रतीक्षा है। फिल्म आनंद के गीत की यह पंक्तिया याद हो आई “जिंदगी कैसी है पहेली भाई कभी तो हंसाएं कभी ये रुलाए।”

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लेखक की जिंदगी में कितनी मुसीबतें आईं ,पड़ कर बहुत दुःख होता है कि मासूम बच्चा कितना दुःख भोग रहा था और सात रूपए इन्सुलिन और इतने ही खाने के लिए ,बहुत मुसीबतें झेलीं राधा कृष्ण जी ने और फिर भी अपने कर्म से पीछे नहीं हटे ,साथ ही सच्चाई का रास्ता नहीं छोड़ा , उन की समृति को नमन .

  • विजय कुमार सिंघल

    लेखक ने अपने व्यापार को बचाने के लिए कड़ी मेहनत की और तमाम मुसीबतों को झेला, लेकिन कभी सत्य और न्याय का रास्ता नहीं छोड़ा। उनकी स्मृति को सादर प्रणाम !

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