लघुकथा

लघुकथा : तिलचट्टे

“वो देखो दाने-पानी की तलाश में निकलती तिलचट्टों की भीड़।” लेबर चौक के चौराहे पर हरी बत्ती की प्रतीक्षा मैं खड़ी कार के भीतर से किसी ने मजदूरों के समूह पर घिनोनी टीका-टिप्पणी की।

“हराम के पिल्ले,” कार के निकट मेरे साथ खड़ा कलवा उस कार वाले पर चिल्लाया, “हमारा शोषण करके तुम एशो-आराम की जिंदगी गुज़ार रहे हो और हमें तिलचट्टा कहते हो। मादर …. ।” माँ की गाली बकते हुए कलवे ने सड़क किनारे पड़ा पत्थर उठा लिया। वह कार का शीशा फोड़ ही देता यदि मैंने उसे न रोका होता। कार वाला यह देखकर घबरा गया और जैसे ही हरी बत्ती हुई वह तुरंत कार को दौड़ा ले गया।

“कलवा पागल हो गए हो क्या तुम?” मैंने उसे शांत करने की कोशिश की।

“हाँ-हाँ पागल हो गया हूँ मैं। हम मजदूरों की तबाह-हाल जिंदगी का कोई अमीरजादा मजाक उडाए तो मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। साले का सर फोड़ दूंगा। चाहे वह टाटा-बिडला ही क्यों न हो?” कलवा पर जनून हावी था।

“जल्दी चल यार फैक्ट्री का सायरन बजने वाला है, कहीं हॉफ-डे न कट जाये,” और दोनों मित्र मजदूरों की भीड़ मैं ग़ुम हो गए।

दिन तक माहौल काफी बदल चुका था। सभी मजदूर बाहर काके के ढाबे पर दिन की चाय पीते थे। गपशप भी चलती थी. जिससे कुछ घडी आराम मिलता था। चाय तैयार थी और मैंने दो गिलास उठा लिए और एक कलवा को पकड़ाते हुए कहा,” साहब के मिजाज़ अब कैसे हैं? सुबह तो बड़े गुस्से में थे!”

“अरे यार दीनू रोज की कहानी है,” कलवा ने गरमा-गरम चाय को फूंकते हुए कहा, “घर से फैक्ट्री … फिर फैक्ट्री से घर… अपनी पर्सनल लाइफ तो बची ही नहीं… सारा दिन मशीनों की न थमने वाली खडखडाहट। चिमनी का दमघोंटू धुआँ। किसी पागल हाथी की तरह सायरन के चिंघाड़ने की आवाज़। कभी न ख़त्म होने वाला काम… क्या इसलिए उपरवाले ने हमे इन्सान बनाया था?” आसमान की तरफ देखकर जैसे कलवा ने नीली छतरी वाले से प्रश्न किया हो, “सुबह के टेम, सही बोलता था, वह उल्लू का पट्ठा– हम तिलचट्टे हैं। क्या कीड़े-मकोड़ों की भी कोई जिंदगी होती है? क्या हमें भी सपने देखने का हक है?”

“तुम्हारी बात सुनकर मुझे पंजाबी कवि पाश की पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं,” मैंने हँसते हुए कहा।

“यार तू बंदकर अपनी साहितियक बकवास। जिस दिन फैक्ट्री में कदम रखा था, बी० ए० की डिग्री को मैं उसी दिन घर के चूल्हे में झोंक आया था।” कहकर कलवा ने चाय का घूँट भरा।

“सुन तो ले पाश की ये पंक्तियाँ, जो कहीं न कहीं हमारी आन्तरिक पीड़ा और आक्रोश को भी छूती है,” मैंने जोर देकर कहा।

“तू सुनाये बिना मानेगा नहीं, चल सुना,” कलवा ने स्वीकृति दे दी।

“सबसे खतरनाक है मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना
घरों से रोजगार के लिए निकलना और दिहाड़ी करके लौट आना
सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना,”

मेरे मुख से निकली ‘पाश’ की इन पंक्तियों ने आस-पास के वातावरण में गर्मी पैदा कर दी। काके चायवाले ने हैरानी से भरकर कहा,” अरे तुम दोनों तो बड़ी ऊँची-ऊँची बातें करने लगे हो.”

“काके नपुंसक लोग बातें ही कर सकते हैं और कुछ नहीं!” कहकर कलवा ने ठहाका लगाया, “जरा अपना टीवी तो आन कर, कुछ समाचार ही देख लें।”

टीवी पर रात हुई रेलवे दुर्घटना के समाचार को दिखाया जा रहा था। दुर्घटना स्थल के तकलीफ देह चित्र। रोते-बिलखते परिवारजन। रेलमंत्री द्वारा मुवावजे की घोषणा। मृतकों को पांच-पांच लाख और घायलों को दो-दो लाख।

“बाप रे…” पास खड़े मजदूर ने आश्चर्य से कहा, “यहाँ दिन-रात मेहनत करके मरने से भी स्साला कुछ नहीं मिलता! रेल दुर्घटना में पांच-पांच लाख!”

“काश! मृतकों और घायलों में हम भी होते!” उस मजदूर की बातों के समर्थन में जैसे कलवा धीरे से बुदबुदाया हो।

मेरे हाथ से चाय का गिलास छूट गया और मैंने अपने जिस्म पर एक झुरझुरी-सी महसूस की।

महावीर उत्तरांचली

लघुकथाकार जन्म : २४ जुलाई १९७१, नई दिल्ली प्रकाशित कृतियाँ : (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। बी-४/७९, पर्यटन विहार, वसुंधरा एन्क्लेव, दिल्ली - ११००९६ चलभाष : ९८१८१५०५१६

One thought on “लघुकथा : तिलचट्टे

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार लघुकथा !

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