आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 8)
कम्प्यूटर विभाग में नये सहयोगी
मैं ऊपर लिख चुका हूँ कि एडवांसशीट के कार्य के कारण मंडलीय कार्यालय से हमारा टकराव हुआ, जो भगवान की कृपा से ठीक-ठीक हल हो गया। इससे कुछ समय पहले ही मेरे विभाग में दो नये अधिकारी आये, जो संयोग से दोनों महिलायें थीं। उनमें से एक श्रीमती माला भट्ट उन दिनों कानपुर मुख्य शाखा में थीं और उनका चयन सिद्धान्त रूप में कम्प्यूटर विभाग में पोस्टिंग के लिए हो चुका था। वे तीन पुत्रियों की माँ थीं, कोई पुत्र नहीं था। उनके पति श्री भट्ट कानपुर में ही जीवन बीमा निगम में बाबू थे और रोज माला जी को लेने तथा छोड़ने आते थे। हालांकि कम्प्यूटर के बारे में माला जी का ज्ञान उस समय मामूली ही था, लेकिन काम सीखने की ललक और परिश्रमशीलता के कारण शीघ्र ही वे अपने कार्य में पारंगत हो गयीं।
दूसरी थीं श्रीमती रेणु सक्सेना, जो कुछ समय पूर्व इलाहाबाद से स्थानांतरित होकर कानपुर आयी थीं और प्रारम्भ में उनको मुख्य शाखा में ही लगाया गया था। लेकिन तत्कालीन स.म.प्र. श्री सिन्हा जी से प्रार्थना करके उन्होंने अपनी पोस्टिंग कम्प्यूटर सेंटर में करा ली थी और हमारे एक अधिकारी श्री शैलेश कुमार को उनकी जगह मुख्य शाखा में भेज दिया गया था। रेणु जी वैसे तो बहुत हँसमुख और योग्य थीं, काम भी अच्छा करती थीं, लेकिन उनमें अपना महत्व दिखाने की प्रवृत्ति बहुत थी। कोई काम करने के लिए कहने पर वे हमेशा यही दिखाने की कोशिश करती थीं कि वे बहुत व्यस्त हैं। उनका दूसरा ‘गुण’ था- लगातार बोलना। कोई सुन रहा हो, चाहे न सुन रहा हो, कोई जबाव दे रहा हो, चाहे न दे रहा हो, उनको बिना रुके लगातार बोलते ही जाना था। इससे हमारे कम्प्यूटर केन्द्र में रौनक सी बनी रहती थी, हालांकि कुछ लोग मन ही मन नाराज भी होते थे।
बाद में दो अन्य नयी महिला अधिकारी भी हमारे कम्प्यूटर सेंटर में पदस्थापित हुईं। उनमें पहली अधिकारी थीं श्रीमती शालू सेठ। वे हमारी कानपुर सेवा शाखा के एक बड़े बाबू श्री आर.के. सेठ की पुत्रवधू थीं। जब मुझे पता चला कि एक बड़े बाबू की बहू यहाँ आने वाली हैं, तो मैंने मन ही मन में सोचा कि यहाँ आकर वह काम क्या करेगी, बस बैठी-बैठी बातें करेगी और अनुशासन तोड़ेगी। लेकिन मैं बहुत गलती पर था। उनके आने के शीघ्र बाद ही हमें पता चल गया कि वे कम्प्यूटर विभाग के ही नहीं समस्त मंडलीय कार्यालय और मुख्य शाखा के श्रेष्ठ अधिकारियों में भी सर्वश्रेष्ठ हैं। हालांकि प्रारम्भ में उनके पास कम्प्यूटर में मात्र ‘ओ लेवल’ का सर्टीफिकेट था, जिसे मैं मजाक में ‘जीरो लेवल’ कहा करता था। लेकिन उनका ज्ञान किसी भी विषय में औरों से कम नहीं था। उनकी प्रतिभा का हाल यह था कि उन्होंने एक इंस्टीट्यूट से ‘सी’ भाषा में प्रोग्रामिंग का 6 माह का कोर्स किया था और वह कोर्स पूरा करते ही उसी इंस्टीट्यूट ने उन्हें सी भाषा पढ़ाने के लिए रख लिया था। बाद में बैंक में उनका चयन हो जाने के बाद उन्होंने वह इंस्टीट्यूट छोड़ दिया था।
शालू कुछ ऐसे कोर्स पढ़कर आयी थीं, जो तब तक मैंने नहीं पढ़े थे, जैसे फाॅक्सप्रो तथा विजुअल बेसिक। मैंने इनको शालू से ही सीखा। यों मैं डीबेस 3 जानता था, लेकिन फाॅक्सप्रो इसी पर आधारित और अधिक उन्नत डाटाबेस प्रबंधन पैकेज है। इसमें डाटा प्रविष्टि के लिए स्क्रीन बनाने की ऐसी सुविधा उपलब्ध है, जो डीबेस 3 में नहीं है। इसके अलावा इसको विंडोज वातावरण में भी चलाया जा सकता है, जो डीबेस 3 में सम्भव नहीं है। इसलिए मैंने शालू के द्वारा फाॅक्सप्रो सीखी और उसका बैंक के कार्यों में भरपूर उपयोग किया। इसका एक कारण यह भी था कि हमारे प्रधान कार्यालय ने पुराने मिनी कम्प्यूटर के साथ ही उस पर चलने वाले साॅफ्टवेयर यूनिक्स, यूनीफाई और आर.पी.टी. वगैरह को पूरी तरह छोड़ देने का आदेश दिया था और हमें फाॅक्सप्रो सभी प्रकार के कार्यों के लिए उपयुक्त लगा था, जिसे छोटे पर्सनल कम्प्यूटरों (पीसी) पर भी सुविधापूर्वक चलाया जा सकता है। इसी प्रकार विजुअल बेसिक का प्रारम्भिक ज्ञान भी मैंने शालू सेठ से ही प्राप्त किया था, जिसे बाद में अपने अध्ययन से बढ़ाया।
शालू के साथ ही एक अन्य अधिकारी हमारे बैंक की सेवा में आयीं। उनका नाम है- तेजविन्दर कौर। जैसा कि नाम से स्पष्ट है वे एक सिख लड़की हैं। उनकी शादी नहीं हुई थी और शायद अभी तक नहीं हुई है। शालू के ‘ओ लेवल’ की तुलना में उन्होंने ‘ए लेवल’ कोर्स कर रखा था और एक प्रकार से शालू से अधिक पढ़ी-लिखी थीं। प्रारम्भ में उनको हमारे बैंक की सेवा शाखा, कानपुर में रखा गया, हालांकि वे कार्य हमारे कम्प्यूटर सेंटर पर बैठकर ही करती थीं, क्योंकि उस समय सेवा शाखा में कोई कम्प्यूटर नहीं था। कुछ समय बाद वे भी सेवा शाखा से हमारे कम्प्यूटर केन्द्र में स्थानांतरित हो गयी थीं।
एक ही विभाग में चार-चार महिलाओं का होना अन्य विभागों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है। उनके कारण हमारे विभाग में रौनक बनी रहती थी और बिल्कुल भी बोरियत नहीं होती थी। लेकिन इसके साथ ही हमें बहुत सावधान भी रहना पड़ता था, ताकि कोई अमर्यादित बात न हो जाये। वैसे सभी महिला अधिकारी बहुत सहयोगात्मक थीं और प्रत्यक्ष रूप में मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं थी। समस्त कार्य वे आपस में बाँटकर कर लेती थीं और एक-दूसरे का ज्ञान बढ़ाया करती थीं।
वैसे कभी-कभी मुझे इससे बहुत परेशानी होती थी। इसका कारण यह था कि कोई कार्य जो अकेला व्यक्ति आराम से कर सकता है, उसे भी वे चारों मिलकर किया करती थीं। इससे बहुत समय नष्ट होता था। गणित का नियम है कि जिस कार्य को एक महिला एक घंटे में करती है, उसी कार्य को दो महिलायें मिलकर दो घंटों में करेंगी, उसी कार्य को तीन महिलाएँ मिलकर तीन घंटों में करेंगी और उसी कार्य को चार महिलाएँ मिलकर चार घंटों में करेंगी। मुझे इस ‘नियम’ की सत्यता का अनुभव लगभग रोज ही होता था।
पुस्तकों का प्रकाशन
अपनी आत्मकथा के पिछले भाग में मैं बता चुका हूँ कि आगरा के उपकार प्रकाशन ने अपनी पहली पुस्तक की सफलता से उत्साहित होकर मुझे पीसी पर चलने वाले प्रोग्रामों पर पुस्तक लिखने का आदेश दिया था। यह वही पुस्तक थी जो मैं बीपीबी पब्लिकेशन के लिए लिख रहा था, लेकिन बाद में वे पीछे हट गये थे। सौभाग्य से वह अधूरी पांडुलिपि उपकार प्रकाशन को अच्छी लगी और उसे छापने को तैयार हो गये। पांडुलिपि की जाँच हमारे ही बैंक के एक कम्प्यूटर अधिकारी श्री उत्तम कुमार मौर्य ने की थी और उनके बताये अनेक उपयोगी सुधारों के बाद वह पांडुलिपि प्रकाशनार्थ गयी। जब तक वह छप कर आयी, तब तक मैं कानुपर आ चुका था। यह मेरी दूसरी पुस्तक थी और इसका नाम था ‘पैनेसिया कम्प्यूटर कोर्स’। यह पुस्तक इतनी सफल रही कि इसके पहले संस्करण की 1100 प्रतियाँ केवल दो माह में ही समाप्त हो गयीं।
अब मुझे उम्मीद थी कि वे उसका तत्काल दूसरा प्रिंट निकालेंगे, लेकिन उसमें वे बहुत समय लगा रहे थे और मेरा कीमती समय नष्ट हो रहा था। इसका दूसरा कारण यह भी था कि इस पुस्तक में जिन प्रोग्रामों के बारे में बताया गया था, जैसे डाॅस, वर्ड स्टार, लोटस 1-2-3, डीबेस-3, प्रिंट शाॅप आदि, उनका उपयोग समाप्त होने लगा था, क्योंकि विंडोज आधारित कम्प्यूटर बाजार में आने लगे थे। इसलिए मैं चाहता था कि जल्दी ही इसका दूसरा संस्करण निकाल दिया जाये, जिसके लिए मैंने विंडोज पर एक अध्याय भी लिखकर भेज दिया था। लेकिन उपकार प्रकाशन का सबसे अधिक जोर प्रतियोगिताओं की पुस्तकों पर होता है। इसलिए उन्होंने इस पुस्तक को छापने में बहुत समय लगा दिया था तथा दूसरे संस्करण को छापने में और भी अधिक समय लगा रहे थे। इसलिए मैंने यही ठीक समझा कि अब दूसरा प्रकाशक खोजा जाये।
तभी मेरा सम्पर्क आगरा के एक अन्य प्रकाशक विनोद पुस्तक मन्दिर से हुआ। उन्होंने पहले मुझे बच्चों के लिए कम्प्यूटर की पुस्तकें लिखने का आदेश दिया। मैं उनके आदेश के अनुसार पुस्तकें तैयार करने लगा। तभी उ.प्र. सरकार ने तय किया कि कम्प्यूटर को एक विषय के रूप में इंटरमीडियेट की कक्षाओं में पढ़ाया जाएगा। तब हमने यह उचित समझा कि किसी अन्य प्रकाशक की पुस्तक के सामने आने से पहले ही इंटरमीडियेट के लिए अपनी पुस्तक बाजार में लगा दी जाए। इससे मैंने बच्चों की पुस्तकों का काम रोककर इंटर की पुस्तक का कार्य प्रारम्भ कर दिया। दो-तीन माह में ही कक्षा 11 की एक पुस्तक छपकर आ गयी। परन्तु उस समय तक सरकार की घोषणा मात्र कागजों पर ही रही अर्थात् वास्तव में इंटर में कम्प्यूटर की पढ़ाई कहीं प्रारम्भ नहीं हुई। इससे इस पुस्तक को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। जिसके कारण कक्षा 12 के लिए पुस्तक लिखने का कार्य हमने रोक दिया। लेकिन मुझे यह लाभ अवश्य हुआ कि मेरी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं और मैं अब अन्य प्रकाशकों से भी सम्पर्क कर सकता था। वैसे बच्चों की पुस्तकें लिखने का कार्य भी चल रहा था और मैं उनको क्रमशः प्रकाशक को भेज रहा था। तभी नये प्रकाशकों से सम्पर्क करने के लिए मैंने कम्प्यूटर सोसाइटी आॅफ इंडिया के मासिक न्यूज लैटर सी.एस.आई. कम्यूनिकेशन्स में एक विज्ञापन दिया।
विजय भाई ,लेख अच्छा लगा लेकिन कम्पिऊत्र में मेरी जानकारी ना के बराबर है ,मन तो करता है कि कालज से सीखूं लेकिन मजबूरी है. आप की इतनी जानकारी है कि मुझे ख़ुशी है कि आप के सम्पर्क में आया .
धन्यवाद, भाईसाहब ! आप कम्प्यूटर पर जितना कर लेते हैं वह भी कम नहीं है। इसके बाद तो बस प्रोग्राम लिखना रह जाता है। उसकी आपको कोई जरूरत नहीं है।
आपके साथ बैंक में कार्यरत महिला कर्मचारियों का परिचय मिला। उनसे सम्बंधित आपके अनुभव भी ज्ञात हुए। कम्प्यूटर सम्बन्धी आपकी तीन पुस्तकों के प्रकाशन एवं अन्यों पर लेखन कार्य के जारी होने की जानकारी भी हुई। आपका व्यक्तित्व बहुआयामी है यह अनुभव कर प्रसन्नता हो रही है। हमने अपने कार्यालय के दिनों में वर्ल्ड स्टार ४ व ६ तथा डीबेस का खूब प्रयोग किया है। शायद पत्र लेखन के लिए मुझे PW अधिक सुविधाजनक लगता था. डी बेस तथा PW का प्रयोग मैंने अपने रिटायरमेंट जुलाई १२ तक किया। आपकी आत्मकथा पढ़कर अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं। हादिक धन्यवाद।
आभार मान्यवर !