लघुकथा

लघुकथा : लुत्फ़

“रफ़्ता-रफ़्ता वो मेरे …”, “चुपके-चुपके रात-दिन आंसू …”, “पिया रे, पिया रे … लागे नहीं म्हारो जिया रे”, एक से बढ़कर एक खूबसूरत ग़ज़लें, नज्में, सूफियाना गीत-संगीत के नशे में राजेश डूबा हुआ था। शाम का समय। कक्ष में हल्का अँधेरा और डी. वी. डी. प्लेयर से आती मदहोश करती आवाज़ें। कभी महंदी हसन, कभी ग़ुलाम अली तो कभी उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान … सभी बेजोड़। सभी एक से बढ़कर एक स्वर।सभी पुरसुकून से भर देने वाली आवाजें।

सोफे पर आराम से बैठा राजेश एक हाथ में व्हिस्की का गिलास और दूसरे हाथ में सिगरेट। पुरे वातावरण में शराब, धुआं और संगीत इस तरह घुल-मिल गए थे कि तीनों को अलगकर पाना असंभव था।

“डिंग-डांग … डिंग-डांग ….” डोर बैल बजी तो राजेश संगीत की दुनिया से वास्तविकता में लौट आया, ‘कौन कम्बख्त … इस वक़्त! ‘ वह मदिरा के खुमार में धीमे से बुदबुदाया। “आ जाओ दरवाज़ा खुला है!” बाकि संवाद उसने बुलंद आवाज़ में कहा। द्वार के कपाट खुले तो, “अरे अखिलेश तुम!”

“वाह भाई राजेश, देश में आग लगी हुई है और तुम मज़े से दुश्मन देश के कलाकारों की ग़ज़लें सुन रहे हो … ” अखिलेश चिल्लाया, “पता है बीती रात हमारे पांच फौजी शहीद कर दिए कमीनों ने ….”

“अरे यार अखिलेश मूड खराब मत करो। किसी भी कलाकार को देश, काल और सीमा में मत बांधो, वह सबके लिए होते हैं।”

“आज़ादी के बाद से चार बड़े हमले। संसद पर हमला। छब्बीस ग्याहरा। उनके जिहादियों द्वारा जगह-जगह बम विस्फ़ोट … कैसे भूल सकते हो तुम, बदमाश पडोसी की करतूत को!”

“बड़ा पैग लेगा या छोटा …” राजेश ने उसकी बातों को दरकिनार करते हुए कहा।

“बड़ा …” अखिलेश बोला और मेज़ पर रखे सिगरेट के पैकेट से एक सिगरेट निकालकर सुलगा ली।

“कभी -कभी तो खुंदक आती है, हमारी निकम्मी सरकार क्या कर रही है? अलगाव को हवा देती राजनीति को बंद क्यों नहीं करते ये लोग! रोज़-रोज़ की यह चिक-चिक ख़त्म क्यों नहीं करते? एक सख्त कानून बनाकर क्यों नहीं देशद्रोहियों को फांसी देते?” कहकर सिगरेट के दो-तीन कश लगाने के बाद अखिलेश ने व्हिस्की का पैग हलक से नीचे उड़ेल दिया। फिर प्लेट में रखे चिकेन का लुत्फ़ लेने लगा।

“वोट बैंक… जाति-धर्म की राजनीति … लालफीताशाही … मुनाफाखोरी … पूंजीवाद … भ्रष्टाचार … लोकतंत्र की सारी कड़ियाँ, एक-दुसरे
से जुडी हैं। क्या-क्या ठीक करोगे मेरे भाई? ” राजेश ने पहली बार भीतर के आक्रोश को अभिव्यक्ति दी, “चुपचाप लेग पीस चबाओ… दारू पियो … और चिंता-फ़िक्र को धुंए में उडा दो … उस्ताद गायकों की ग़ज़लों का लुत्फ़ लो … ” कहकर राजेश ने रिमोट से स्वर का स्तर बढ़ा दिया और दोनों मित्र एक दूसरी ही दुनिया में खोने लगे।

महावीर उत्तरांचली

लघुकथाकार जन्म : २४ जुलाई १९७१, नई दिल्ली प्रकाशित कृतियाँ : (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। बी-४/७९, पर्यटन विहार, वसुंधरा एन्क्लेव, दिल्ली - ११००९६ चलभाष : ९८१८१५०५१६

2 thoughts on “लघुकथा : लुत्फ़

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    गुस्सा आ ही जाता है ,सब कुछ देख कर लेकिन आम आदमी किया कर सकता है , बस चिकन लेग खाओ पैग लगाओ . अच्छी लघु कथा .

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी लघुकथा।

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