ग़ज़ल
हसरत मैं माहताब की रखता भी कहाँ तक,
बे पंख -औ- परवाज़ के उड़ता भी कहाँ तक।
था चश्मे – बेवफा को कोई और ही मनसूब,
मैं उसके इत्मिनान को सजता भी कहाँ तक।
ज़िन्दान के पिंजर में था दिल, सब्र कर गया,
पागल खुशी से हो के उछलता भी कहाँ तक।
वो तर्के-तआल्लुक तो तआल्लुक पे लिखा था,
इक पैर पे रिश्ता कोई चलता भी कहाँ तक।
तस्वीर के पैकर में कोई जाँ नहीं होती,
मन रंग -औ- रोगन से बहलता भी कहाँ तक।
ऐ ‘होश’, इत्मिनान को बुनियाद चाहिये,
वादों का एहतराम मैं करता भी कहाँ तक।
ग़ज़ल अच्छी लगी .
बढ़िया गजल !