आत्मकथा

स्मृति के पंख – 34

सुभाष को पतंग उड़ाने का बहुत शौक था। स्कूल से आकर पतंगबाजी में लग जाता। मेरी मजबूरी थी। बच्चों को गाइड नहीं कर पाता। न तो समय था, न ही तालीम। भगवान के भरोसे बच्चों की नाव चल रही थी। बस सोचता ही रहता बच्चे अच्छी तालीम हासिल कर लें, तो यही पूरा सरमाया है। सुभाष के इम्तहान 8 वीं के नजदीक थे। वह भी वैसे ही पतंगबाजी में बहुत मस्त रहता। राज को एक दिन बहुत गुस्सा आया और उसने खींचकर एक झापड़ सुभाष को मारा और कहा- तेरे से घर की उम्मीदें हैं। इम्तहान सर पर हैं और तू बस्ता फेंककर पतंग उड़ाता रहता है। उस एक थप्पड़ ने सुभाष की तालीमी धारा में बहुत सुधार ला दिया। शायद जो काम कई ट्यूटर रखने से भी न हो पाता, उस थप्पड़ ने उससे ज्यादा काम किया।

राज अब रत्न और प्रभाकर पास कर चुकी थी। दुकान का काम भी अच्छा हो गया था। जम्मू से कुछ पार्टियों का माल बदस्तूर आता था। श्रीनगर से भी कोशिश करने पर कई पार्टियां हमारे साथ सेब का काम करने लगीं। अब मुझे राज की शादी की फिकर थी। सोचता रहता लेकिन कुछ समझ नहीं आता। बहन सीतादेवी ने एक दिन कहा कि गोकुलचन्द का लड़का समझदार है। तुम्हारा उसके साथ बेशक ताल्लुकात बिगड़ा है, फिर भी सबकी इज्जत वह पहले जैसी ही करता है। मेरठ में पढ़ता है। भ्राताजी से भी सलाह मशवरा कर लेंगे। अपने घर का बच्चा है, अगर तुझे मंजूर है, तो पहले गोकुलचन्द से हम बात करेंगे। बाद में लड़का देखना है तो देख लेना। काफी दिन इस बारे में सोचता रहा। फिर एक दिन गुरुजी देवकी नन्दन आए, उनसे भी सलाह ली। उन्होंने भी कहा- बेटा बेहतर है अगर घर में हो जाए तो।

और फिर एक दिन मैं बन बनाकर भ्राताजी के पास गया और उनसे सलाह ली। उन्होंने भी हां करी और कहा कि पढ़ने के बाद अब वहीं काम कर रहा है। जब सब तरफ से हां हो गई, तो मैंने बेबे सीताजी को लिखा कि तुम गोकुलचन्द से बात कर लो। उसके बाद मैं किसी दिन मुजफ्फरनगर जाकर लड़का और घर देख आऊँगा। और एक दिन मुजफ्फर नगर चला गया। उन दिनों गोकुलचन्द एक बड़ी सी हवेली में रहता था। यशपाल के नाम उनके नानाजी जायदाद का क्लेम भी मंजूर हो गया था। उसके बदले उन्हें मुजफ्फरनगर में जमीन एलाट थी। गोकुलचन्द का अपना कोई खास काम नहीं था। यशपाल उन दिनों देवबन्द के एक शुगर मिल में काम करता था। मेरे अपने हालात भी कोई ज्यादा अच्छे न थे।

गोकुलचन्द फिर भी मुझे बहुत खलूस और तपाक से मिला। उसके खलूस ने मुझे मुताअसर किया। एक ऐसी बात थी मेरे मन में आर्क जैसे लगा जैसे कोई करिश्मा हो। मुझे गोकुलचन्द के कारोबार जायदाद के बारे में ज्यादा जैसे सोचना नहीं, बस यशपाल की स्वर्गीया माता दुर्गा का चेहरा मेरे सामने था। वह जैसे कह रही है- भईया यह मेरा बेटा है। और इसके बाद मैंने अपना मन बना लिया- दुर्गा अगर यह तेरा बेटा है तो मेरा भी है। बस समझो कुदरत ने पहले से ही संजोग बनाया था। बहुत पहले की एक बात याद आ गई। जब गलाढेर में इस गोकुलचन्द और मेरी अच्छी दोस्ती थी। अभी तक दोनों की शादी नहीं हुई थी, मंगनी हो गई थी। बातों ही बातों में हम मरदान से आ रहे थे। रास्ते में ऐसे कहा कि हमारी आपस में लड़की और लड़का हुआ तो हम उनकी शादी करेंगे। जैसे भगवान ने उस बात को उस वक्त से तय कर लिया, जबकि अभी हम दोनों की शादियां नही हुई थीं। फिर आकर माताजी भ्राताजी से और गुरुजी से कह दिया कि ठीक है, जैसी आपकी मर्जी, वैसे ही मुझे मंजूर है और उन्हें हाँ कह दी।

जम्मू में हमारे खिलाफ रामलाल गुलाटी ने लिखना शुरू कर दिया। एक फर्म थी श्रीचंद सीताराम उनका हमने दो तीन हजार देना था। फिर भी जब हम अलग हुये, तो उस पार्टी ने हमारे साथ काम करना शुरू किया। उन्हें यह यकीन था कि रुपया जरूर मिल जाएगा। एक दिन 17 बक्से अखरोट का चालान श्रीचंद सीताराम का हमारे पास आया। वह लोग थोड़ा सा काम भी हमारे पास देख नहीं सकते थे। अब जब काम बढ़ने लगा तो उन्हें ज्यादा तकलीफ थी। रामलाल गुलाटी ने श्रीचन्द सीताराम को लिखा कि तुम्हारे ही माल से तुम्हारी पुरानी रकम पूरी करेंगे। और उन्होंने वह पत्र मुझे भेज दिया कि यह तुम्हारे कल के भाई लिख रहे हैं। फिर मैंने उन्हें लिखा कि आपने क्या जवाब दिया? उन्होंने लिखा कि हमारा जवाब था- रुपया हमारा मरता है, तकलीफ तुम्हें क्यों होती है?

लेकिन फिर भी वह उन्हें हमारे बारे में ऐसी बातें लिखता रहता, जब कि मेरे खत में उनका जिकर तक न होता। और फिर एक दिन भरे सीजन में लक्ष्मीदास एंड ब्रदर्स का मुझे खत मिला कि तुम मेरे भाई को तंग करते हो, इसलिए मेरा हिसाब चुकता कर ड्राफ्ट रवाना कर दो। मैं तुमसे ना मिलवरतक करता हूँ। लक्ष्मीदास गुलाटी था, इसलिए उसने रामलाल को भाई मुखातिब किया। अव्वल बात तो यह थी कि ताराचन्द के मुकाबले में रामलाल बिक्री न कर पाता, रामलाल की कोशिश थी कि हमारी दुकान अगर टूट जाय तो मण्डी में और किसी से उसे खतरा न था। जबकि माल मुकाबला पर आता था और हमारी बिक्री निसवतन अच्छी होती। इसलिए लक्ष्मीदास के आगे कुछ उटपटांग लिखा होगा और लक्ष्मी ने जवाब में हमें ऐसे लिख दिया। वरना लक्ष्मीदास जम्मू फ्रूट मंडी का प्रेसीडेंट था, बहुत काबिल इंसान था। अब सीजन के दिन थे और मेन पार्टी का माल आना बंद हो जाये तो दुख तो होना ही था।

मैंने शाम को एक खत उन्हें लिखा कि चाचाजी आपने किसी कारोबार के बारे में मुझसे कोई शिकायत नहीं की। आपने मेरी जात पर हमला किया है। जब तक मैं अपनी जाती सफाई पेश नहीं कर दूं, आपसे माल नहीं मांगूगा। और फिर एक खत सब्जी मण्डी यूनियन के प्रधान सरदार इंदर सिंह से लिखवाया, एक खत एन0डब्ल्यू0एफ0पी0 यूनियन के प्रधान गंगा सिंह से, जो पहले हमारे साथ मण्डी में काम कर चुका था और एक खत मै0 सुन्दरदास रामनाथ, केसरगंज मण्डी के श्री रामनाथजी से और एक खत अपना लिखा, जिसमें लिखा कि सबसे पहले हमारा विश्व से प्रेम और प्यार रखने का आदर्श हमें मिला है। फिर हर नबी नूं इंसान के लिए हमें प्यार की प्रेरणा दी जाती है। फिर मुल्क से प्यार, जिसके लिये हँसते-हँसते सर कटाना मंजूर कर लेते हैं। यह जात बिरादरी के संबंध तो बहुत बाद में आते हैं। मेरे इस पत्र के साथ दीगर सज्जनों के विचार मेरे बारे में आपको पढ़ने को मिलेंगे। मैंने आपको जज मंजूर किया है। एक पलड़े मुझको रख लेना, दूसरे में रामलाल को। जिसका पलड़ा आपको भारी लगे, उसके सर पर प्यार का पूरा हाथ रखना। और चन्द दिन बाद लक्ष्मीदास का खत मुझे आया जिसमें उसने अपने पहले खत के बारे में माफी मांगी थी और बाकायदा कारोबार जारी रखा।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 34

  • विजय कुमार सिंघल

    लेखक ने जिस प्रकार कठिनाइयों से जूझते हुए बाजार में अपनी साख बनायी, वह बहुत प्रशंसनीय है। उनको प्रणाम !

  • Man Mohan Kumar Arya

    सुभाष की पतंगबाजी की आदत, पढाई की उपेक्षा, पिता की चिंता, बहिन का थप्पड़ और सुभाष में सुधार पढ़कर अच्छा लगा। मुझे स्वयं बचपन में पतंग का बहुत अधिक शौक था। मैं इसके असर को व बुराई को पूरी तरह से जानता हूँ। पूरी कहानी पठनीय एवं शिक्षाप्रद है। श्री राधा कृष्ण कपूर साधारण मनुष्य नहीं असाधारण मनुष्य थे। धन्यवाद।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत मिहनत की राधा कृष्ण जी ने और घर की सभी तकलीफों का डट कर मुकाबला किया .

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