लघुकथा

लघुकथा : मन की परत

लड़कपन खेल में खोया, जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देखकर रोया, वही किस्सा पुराना है …………….
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है ……..

रेडियो पर फ़िल्मी गीत बज रहा था। उम्र की ढलान पर बैठे साठ वर्षीय रामेश्वर ने इन बोलों को ध्यान से सुना और दोहराने लगा। बग़ल में बैठा उसका पैंतीस वर्षीय जवान बेटा मोहन, बाबुजी के मुखारबिंद से यह गीत सुनकर मुस्कुरा दिया। वह अपने पांच वर्षीय बेटे गोलू के साथ खेलने में व्यस्त था।

“बेटा मोहन, विधाता ने जीवन भी क्या ख़ूब रचा है? बचपन, जवानी और वृद्धावस्था का ये खेल सदियों से चला आ रहा है। मृत्युबोध का अहसास जितना इस उम्र में सताता है, उतना बचपन और जवानी में नहीं। लगता है दिया अब बुझा या तब बुझा।” रामेश्वर प्रसाद के स्वर में पर्याप्त दार्शनिकता का पुट था।

“सब कुछ नाशवान है पिताजी, मौत के लिए उम्र क्या? उसके लिए तो बुढा, जवान, बालक सब एक समान है।” मोहन ने गंभीरतापूर्वक कहा।

“ये बात नहीं है बेटा, मेरे कहने का अभिप्राय यह था कि लड़कपन हम खेल में खो देते हैं, जो कि ज्ञान प्राप्त करने की उम्र होती है, क्योंकि इस उम्र में न तो कमाने की चिंता होती है, न भविष्य बनाने की फ़िक्र। धीरे-धीरे जवानी की दहलीज़ में आकर यह अहसास होता है कि वह समय कितना अनमोल था। फिर युवावस्था में हम मोहमाया के जंजाल में फंसे रहते हैं तथा जवानी के मद में खोये-खोये रहते हैं। जबकि सार्थक कार्यों को करने की उम्र होती है यह। घर-परिवार की जिम्मेदारियां, रोज़गार की चिन्ता-फ़िक्र, हर किसी को निगल जाती है, और आदमी खुद का कमाया भी, खुद पर ख़र्च नहीं कर पाता।” रामेश्वर ने व्याकुल होकर कहा, “तुमने प्रेमचन्द की कहानी ‘बूढी काकी’ पढ़ी थी न?” रामेश्वर के कथन पर मोहन ने ‘हाँ’ में सर हिला दिया, “कई बूढों की हालत तो इससे भी गई गुज़री है।”

“पिताजी आप भी व्यर्थ की क्या-क्या कल्पनाएँ करते रहते हैं!” मोहन ने मुस्कान बिखेरी, “आपको हमसे कोई कष्ट है क्या? मैंने या सुशीला ने कभी कुछ कहा आपसे?”

“नहीं बेटा … इस मामले में तो मैं बड़ा भाग्यवान हूँ तुम्हारी तो राम-सीता की जोड़ी है, मुझे तो कष्ट केवल बुढ़ापे से है। शरीर रोगों का घर हो जाता है, हर तरह की बीमारियाँ बढ़ जाती हैं — उच्च रक्तचाप, हृदय रोग तो आम बात है, ज़्यादा खा लो, तो दिक्कत। कुछ पी लो, तो मुसीबत। लिखने वाला आदमी, लिखने के लायक नहीं रहता, उंगलियाँ काँपने लगती हैं। दिमाग़ सोचना बंद कर देता है। हाय! कमबख्त बुढ़ापा! हाय! किसी कवि ने क्या खूब कहा है — जो जाकर न आई, वो जवानी देखी, जो आकर न गया वो बुढ़ापा देखा।”

“आख़िर क्या बात है पिताश्री, आज आप इतना उपदेश क्यों दे रहे हैं!” मोहन ने गोलू को गोदी में बिठाते हुए कहा।

“कुछ नहीं बेटा, मन की परतों में कुछ बातों की काई जमी थी, सो तुमसे बाँट ली।” रामेश्वर ने पुत्र की निर्मूल शंका का समाधान करते हुए कहा, “आज तो क्रिकेट मैच है। रेडियो बंद करके टी०वी० तो लगा ज़रा … काफ़ी दिनों से सचिन की बैटिंग नहीं देखी …” कहकर रामेश्वर जिन्दादिली से हंस दिए।

महावीर उत्तरांचली

लघुकथाकार जन्म : २४ जुलाई १९७१, नई दिल्ली प्रकाशित कृतियाँ : (1.) आग का दरिया (ग़ज़ल संग्रह, २००९) अमृत प्रकाशन से। (2.) तीन पीढ़ियां : तीन कथाकार (कथा संग्रह में प्रेमचंद, मोहन राकेश और महावीर उत्तरांचली की ४ — ४ कहानियां; संपादक : सुरंजन, २००७) मगध प्रकाशन से। (3.) आग यह बदलाव की (ग़ज़ल संग्रह, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। (4.) मन में नाचे मोर है (जनक छंद, २०१३) उत्तरांचली साहित्य संस्थान से। बी-४/७९, पर्यटन विहार, वसुंधरा एन्क्लेव, दिल्ली - ११००९६ चलभाष : ९८१८१५०५१६

One thought on “लघुकथा : मन की परत

  • विजय कुमार सिंघल

    यह लघुकथा कुछ एंटीक्लाइमैक्स जैसी लगी।

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