कविता

प्रेम-परीक्षा

“हृदय तंतु सन्न हुए।
कितने आक्षेप उत्पन्न हुए।
प्रेम और संदेह
एक साथ कैसे रहते?
प्रेम-परीक्षा में इतने प्रश्न हुए।
परीक्षा की अग्नि में
जल गई वेदना भी।
टूट कर विछिन्न् हुई प्रेम की नवचेतना भी॥
इतनी मर्माहत देकर भी “प्रिय” ना प्रसन्न हुए।
प्रेम-परीक्षा में इतने प्रश्न हुए।
स्मृतियों की ख़ोह में ऐसे-ऐसे उर वृतान्त है।
आकाश के नितान्त में भी एक सुप्त एकान्त है।
सहसा डरी थी “सोना”
डर भी प्रलाप-क्रन्दन हुए।
प्रेम-परीक्षा में इतने प्रश्न हुए॥
उर में कुछ भी नही था।
पर “प्रिय”की संदेह हांडी में बिगड़ता महकता दहीं था।
जिसे मथतें-मथतें हम विष से चन्दन हुए।
प्रेम-परीक्षा में इतने प्रश्न हुए॥
उनका विषाद फिर भी रोंदन करता रहा।
और प्रेम हर बार ही शोंधन करता रहा।
नित अग्नि में जल-जल हम पीतल से कुन्दन हुए।
प्रेम-परीक्षा में इतने प्रश्न हुए।
हृदय तंतु सन्न हुए।
कितने आक्षेप उत्पन्न हुए।”

“सोना श्री”

2 thoughts on “प्रेम-परीक्षा

  • अतुल बालाघाटी

    पर “प्रिय”की संदेह हांडी में बिगड़ता महकता दहीं था।
    जिसे मथतें-मथतें हम विष से चन्दन हुए।

    वाह्ह्ह्ह बहुत सुन्दर सृजन आदरणीया सोना जी
    बहुत बहुत बधाई हो

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब, सोना जी !

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