प्रेम-परीक्षा
“हृदय तंतु सन्न हुए।
कितने आक्षेप उत्पन्न हुए।
प्रेम और संदेह
एक साथ कैसे रहते?
प्रेम-परीक्षा में इतने प्रश्न हुए।
परीक्षा की अग्नि में
जल गई वेदना भी।
टूट कर विछिन्न् हुई प्रेम की नवचेतना भी॥
इतनी मर्माहत देकर भी “प्रिय” ना प्रसन्न हुए।
प्रेम-परीक्षा में इतने प्रश्न हुए।
स्मृतियों की ख़ोह में ऐसे-ऐसे उर वृतान्त है।
आकाश के नितान्त में भी एक सुप्त एकान्त है।
सहसा डरी थी “सोना”
डर भी प्रलाप-क्रन्दन हुए।
प्रेम-परीक्षा में इतने प्रश्न हुए॥
उर में कुछ भी नही था।
पर “प्रिय”की संदेह हांडी में बिगड़ता महकता दहीं था।
जिसे मथतें-मथतें हम विष से चन्दन हुए।
प्रेम-परीक्षा में इतने प्रश्न हुए॥
उनका विषाद फिर भी रोंदन करता रहा।
और प्रेम हर बार ही शोंधन करता रहा।
नित अग्नि में जल-जल हम पीतल से कुन्दन हुए।
प्रेम-परीक्षा में इतने प्रश्न हुए।
हृदय तंतु सन्न हुए।
कितने आक्षेप उत्पन्न हुए।”
“सोना श्री”
पर “प्रिय”की संदेह हांडी में बिगड़ता महकता दहीं था।
जिसे मथतें-मथतें हम विष से चन्दन हुए।
वाह्ह्ह्ह बहुत सुन्दर सृजन आदरणीया सोना जी
बहुत बहुत बधाई हो
बहुत खूब, सोना जी !