राज मुक्तक सुधा
[1]
माँ के हाथों की रोटी बड़ी प्यारी लगती है,
माँ की मुस्कुराहट भी फुलवारी लगती है/
उपवन का पत्ता-पत्ता गाता प्रेम का गीत,
माँ तेरा आँचल ममता की अटारी लगती है/
[2]
कोई धन को चुराते हैं ,
कोई मन को चुराते हैं/
ए बड़े कंगाल हैं आशिक ,
गजब कविता चुराते हैं/
[3]
अपनी माँ के सौदागर बन कैसे सौदा करते हैं/
ऐसे बेशर्म नर पिशाच कलुषित मानवता करते है/
स्वारथ के वटबन्ध इन्हे नित जकड़े रहते/
देश का सीना छलनी कर छल प्रपंच करते हैं/
[4]
चुराते कब्र से लाशें कभी चमत्कार नहीं होते/
चोरी करने वाले कभी साहित्यकार नहीं होते/
ख्वाविशें हैं न दिल है, न मन है, न तन है जिगर,
यार उधार के शोहरत से कभीअविष्कार नही होते/
राजकिशोर मिश्र राज
पड़ कर मज़ा आया .
आदरणीय जी आपकी पसंद एवम् हौसला अफजाई के लिए आभार /
बहुत अच्छे मुक्तक !
आदरणीय पसंद एवम् प्रतिक्रिया के लिए कोटिश आभार