आत्मकथा

स्मृति के पंख – 38

घर में अब एक नई पार्टी बन गई थी और इनका बोल बाला था। नई पार्टी में राकेश, गुड्डा, केवल, गुलशन (गुट्टू) ये सब मेम्बर थे और उस नई पार्टी की रौनक थी पूरे घर में। ये नई पार्टी बड़े काम करने का इरादा रखती थी और अपनी मंजिल की तरफ पूरी लगन से गामजन थी। राकेश तो पिछड़ जाता रहा पढ़ाई में, लेकिन गुलशन गुट्टू ने तो स्कालरशिप लेनी शुरू कर दी। गुट्टू की स्कालरशिप का रुपया तो मुझे कभी नहीं मिला, हाँ बाकी इनाम बाइज्जत इन्दराज का सर्टिफिकेट लाता रहा। पर रुपया इसलिए नहीं मिलता था कि कागजात के मुताबिक मेरी आमदनी अच्छी थी। फिर भी बात तो थी इज्जत अफजाई की, जो उसे मिली। एक दफा उसकी गैर मौजूदगी में वो मान उसकी माता जी हासिल करने गई। मेरे दिल में उत्साह और खुशी का अथाह सागर लहराने लगा। इसलिए नहीं कि बच्चे अपने लक्ष्य को पा रहे हैं, बल्कि इसलिए कि बच्चों को ऊपर उठाने की भावना थी मेरे मन में और इस मंजिल में मेरा दृढ़ संकल्प, बच्चों की मेहनत बुजुर्गों का आर्शीवाद और भगवान की कृपा देखता था। अपनी खुद्दारी पर आँच नहीं आई। किसी से कभी कुछ न मांगा ना ही किसी की सिफारिश का सहारा लिया। कभी रिश्वत से काम नहीं निकाला। बस एक अदृश्य दैवी रूप का विश्वास जरूर था और गुरु की कृपा चप्पू चलते रहे और नाव आगे बढ़ती रही।

फिर खयाल आया एक कोठी बनवाने का, जिसमें सुभाष और मेरी होने वाली बहू का घर होगा। जब वो लुधियाना आया करेंगे, उनको इस कोठी में रहना होगा। मैं भी जाया करूँगा। ऐसा ख्याल आते ही मैंने परम प्रकाश के बड़े भाई उल्लास गुप्ता के कहने पर दो सौ गज का प्लाट अच्छी जगह पर खरीदने का मन बना लिया। परम प्रकाश गुप्ता रमेश के साथ पढ़ता था और उनका आपस में बहुत प्यार था। बयालिस रुपया गज पर सौदा एक प्रापर्टी लीडर की खिदमत से तय हुआ। जायदाद थी एक कर्नल की बेबा की थी। दो सौ रुपये हमने पेशगी देकर सौदा पक्का कर लिया, जबकि बाकी रुपया रजिस्ट्री के साथ देना था। जब भी मैं रजिस्ट्री कराने की बात करता, प्रापर्टी लीडर आना कानी कर जाता। एक तो मेरे पास टाइम कम होता, दूसरा प्रापर्टी लीडर की कोई बात तो चुभती थी। एक दिन मैने खुद कर्नल की बेवा से को मिलने का इरादा किया और मैं उसकी कोठी पर उनसे जा मिला। मेरी सब बात सुनकर उसने कहा अगर सच-सच बताओगे तो मैं रजिस्ट्री करवा दूँगी। जमीन किस भाव खरीदी है? मैंने कहा- बयालिस रुपया गज। उसने कहा कि फलां तारीख को दस बजे कचहरी पहुँच जाना। मैं जमीन रजिस्टर करा दूंगी और वादे के मुताबिक उसने जमीन रजिस्टर करवा दी। बात दरअसल ये थी कि उसे प्रापर्टी डीलर पर कुछ शक हो गया था, लेकिन सबूत उसके पास कोई नहीं था। मुझसे बातचीत के बाद उसने 40 रु0 गज की फरोख्तगी दिखाई, जब कि मेरे साथ 42 रु0 गज का सौदा प्रापर्टी डीलर ने किया था। खैर उसने उस डीलर से बाकी सौदे कैंसिल कर दिये।

अनंत राम के साथ खतोकिताबत जारी थी, लेकिन इधर होशियार पुर में एक नम्बरदार था, जिसने तलवाड़ा जाकर सुभाष को देखा था। अपनी लड़की के बारे मुझसे बातचीत की और हम दोनों होशियारपुर गये, लेकिन मुझे लड़की पसन्द न आई। वीरां बहन को भी कहा था, वह भी देख भाल कर रही थी, जबकि उसने मुझे कहा मेरठ में एक कैप्टेन की लड़की है, मैंने उनसे बातचीत की है, वो सुभाष को देखने आएंगे, मैं आपको लिख दूंगी। अनन्त राम के खत तो अक्सर आते रहते। एक दिन भाभी नीलम का पत्र आया जिसमें उसने लिखा था कि सुभाष का रिश्ता करने से पहले एक दफा बरेली हमें मिल कर जाना, फिर फैसला करना। अब मैंने बरेली जाने का मन बना लिया और उसी रात पिता जी के ख्वाब में दर्शन हुए, जो मुझसे कह रहे थे बरेली जाने के लिए।

सुबह मैंने अनन्त राम को खत लिख दिया मैं सुभाष और उनकी माता जी लड़की देखने फलां दिन आ रहे हैं। कल हमें जाना था और आज शाम को वीरां बहन का फोन आया कि मेरठ से लड़की के साथ वो लोग हरद्वार आ रहे हैं, सुभाष को देखने के लिये, कल तुम पहुंच जाना। मैंने वीरां को कहा- बहन अब तो कल मैं बरेली जा रहा हूं, उधर से वापस आने के बाद ही तुम्हें लिखूँगा और दूसरे दिन हम तीनों बरेली रवाना हो गये। बरेली पहुँचने पर अनन्त राम स्टेशन पर मौजूद थे हमारे इस्तकबाल के लिये। हम मोटर में बैंठे और जल्दी ही घर पहुँच गये। जहां अनन्त की माता (झाईजी) के दर्शन किये, जिनको देखे हुए 27 साल गुजर चुके थे। अभी हम नहा धो कर नाश्ता ही कर पाये थे कि लड़की का बाप, जिनके हमराह उसकी बड़ी बेटी, जो शादी शुदा थी, उनसे छोटी, जिसका रिश्ता हो चुका था और तीसरी बेटी कमलेश, जिसे मेरी बहू बनना था, आ गये। मैंने तो सिर्फ लड़कियों को दूर से बैठे ही देखा। तीनों बहनें मुझे बहुत अच्छी लगीं। तलवार साहब ने सुभाष से थोड़ी बातचीत भी की।

वो लोग रुखसत होने लगे, तो थोड़ा नज़दीक जाकर मैंने कमलेश को नज़र भर के देखा। मुझे उसके प्रति प्यार उमड़ आया। जब तक वो बैठे रहे, बाहर मैंने सुभाष से पूछा, लेकिन उसने मुझे कोई जबाब न ‘हां’ का दिया न ‘ना’ का, ताकि जाते समय मैं उन्हें तसल्ली दे सकता। उनके जाने के बाद मैंने सुभाष से फिर पूछा, लेकिन उसने पूरी फिर भी ‘हां’ ‘ना’ न की और कहा कि मैं तो देहली जा रहा हूं। आपको जैसा मंजूर हो वैसा कर लेना। सुभाष देहली के लिये रवाना हो गये। और झाईजी ने आवाज दी ‘अन्ती’ (वह अनन्त राम को अन्ती कह कर बुलाती थी), जरा राधा कृष्ण को इधर ले आओ, क्या कहता है। हम दोनों झाईजी के पास पहुँचे। उन्होंने मुझसे कहा- बेटा बहुत अच्छी लड़की है और अन्ती भी उसे अपनी बेटी मानता है, ‘हां’ कर दे, मैं कहती हूं। मैंने उनके चरणों को छुआ और कहा जो आप का हुकम। जाते समय हमने एक अंगूठी बनवा ली थी। हमारे जहन में ख्याल था कि बात तो जरूर बन जायेगी, उस समय खाली हाथ लड़की को मिलना अच्छा न होगा। और मैंने अनन्त राम को बोल दिया कि तलवार साहब को फोन कर दो, हम चार बजे पहुंच रहे हैं बरेली क्लब। ठीक चार साढ़े चार का टाइम था। हम बरेली क्लब पहुँच गये, अनन्त भाभी और हम दोनों मियाँ-बीबी। तलवार साहब ने अपने बड़े जमाई जयकिशन (जो डेंटिस्ट थे और बरेली क्लब में ही रह रहे थे) से मुलाकात करवाई।

बाद में एक गोल टेबिल पर सब लोग, जिसमें कमलेश भी शामिल थी, बैठे। जमा खातिर तवाजो हो चुकी तो हमने तलवार साहब को कह दिया कि कमलेश अब हमारी बेटी है और अपनी बहू की झोली में शगुन और मिठाई डाल दिया, जिसका प्रबन्ध हमने कर रखा था। इस दौरान जिस बात ने मुझे बहुत प्रभावित किया वो थी तलवार साहब की दूरअन्देशी, वो मुझे टेबिल से उठा कर कमरे में ले गये, जहां कमलेश की मां बैठी थी, मैंने उन्हें नमस्कार किया। तलवार साहब कहने लगे- ये कमलेश की मां हैं, इसकी दिमागी हालत अच्छी नहीं, इसलिये कल तुम्हारे दिल में ऐसी बात न आये कि मैंने तुमसे कुछ छिपाया था। मेरी आँखों के सामने पिताजी, बड़ी बहनजी की तसवीरें घूम गयीं और मैं उनको प्रणाम कर उनके साथ बाहर आ गया। कितने अजीम लगे तलवार साहब मुझे। उस समय टेबिल पर बैठे हुए ही कई दफा मेरी निगाह कमलेश के चेहरे पर टिक जाती। अनन्त राम को ऐसे लगा जैसे मैं कमलेश के चेहरे पर लगी ऐनक में से कुछ झांक रहा हूं और उसने कमलेश के चेहरे से ऐनक उतार ली। जब कि मेरे मन में ऐसा कोई विचार न था। मुझे तो अब अपनी बहू बहुत ज्यादा अच्छी लग रही थी, तभी मेरी निगाह उठ जाती थी। इस तरह सुभाष की मंगनी तक अपने आंगन में एक देवी के आने का तखय्युल किया। अनन्त राम और झाई जी के मन को भी बड़ी खुशी हुई। काफी रात तक अनन्त राम, भाभी जी से बातें हुईं और इस दिन हम खुशी-खुशी घर लौटे।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

4 thoughts on “स्मृति के पंख – 38

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    अब मन को ख़ुशी हुई . अब राधा कृष्ण जी का सारी पिछली जिंदगी को याद करके ऐसे लगता है जैसे यह सच ही है कि there is light at the end of the tunnel.

  • Man Mohan Kumar Arya

    पूरी क़िस्त पढ़ी। लम्बे शामे बाद श्री राधा कृष्ण कपूर जी के अच्छे दिन आये प्रतीत होते हैं। विवरण रोचक है।

    • विजय कुमार सिंघल

      मान्यवर, उनकी आत्मकथा अब समापन के निकट है। आजकल उनके सभी बच्चे विभिन्न स्थानों पर अपने अपने परिवारों के साथ ख़ुशहाल हैं।

      • Man Mohan Kumar Arya

        जी धन्यवाद।

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