मुस्कुराना….रस्म – भर तो नहीं
मुस्कुराहट मे छुपी क्यों दिखती कभी तन्हाई भी |
मुस्कुराना बस इक रस्म-भर तो नहीं होता |
ना बाँधो सब्र के बाँधों को मन के कबाट खुल जाने दो |
कुछ कह दो मुख से कुछ आँखों से बह जाने दो |
क्योकि मुस्कुराना बस एक रस्म – भर तो नहीं होता |
दिखेगी चेहरे पे फख्त वो रौनक वो सच्ची मुस्कान भी |
गम की परछाईयों को जो अँधियारे मे औझल कर देगी |
होगा उजियारा फिर नई शुरूआत का लगेगी ज़िन्दगी फिर नई सी |
क्योंकि मुस्कुराना बस एक रस्म- भर तो नहीं होता |||
— कामनी गुप्ता
kya bat hai
बढ़िया कविता.
बहुत खूब .