कटु सत्य
यह तो तय था
जिस दिन हम मिले थे
उससे बहुत पहले
यह निश्चित हो गया था
एक दिन हम मिलेंगे और
एक दिन तुम
मुझे छोड़ जाओगी
या मैं तुम्हे छोड़ जाउंगा ,
कौन किसको छोड़ जायगा
यह पता नहीं था l
इस कटु सत्य को
हम जानते थे ,
फिर भी हँसते थे,खेलते थे
साथ मिलकर
एक दुसरे का
सहारा बनकर आगे कदम बढाते थे l
जीवन के सुख-दुःख के
हर एक पल को
एहसास करने की
कोशिश करते थे ,
कभी लड़ते थे ,झगड़ते थे
फिर मिलकर बतियाते थे ,
पर हमें पता नहीं था
परछाईं की भांति
काल हमारे पीछे खड़े थे l
कुछ काम इस जनम में
मुझे दिया था ईश्वर ने
साझा करना था तुमसे
किया मैंने ,जितना बन पड़ा मुझसे l
इंसान गलतियों का पुतला है
गलतियाँ मैंने की
गलतियाँ तुमने की ,
दुखी हूँ मैं .
सज़ा केवल तुमको मिली l
इसे सज़ा कहूँ या
अनन्त यात्रा की तैयारी कहूँ ?
एक प्रश्न सदा उठता है मेरे मन में ,
क्या हम साथी रहे किसी और जनम में ?
यदि नहीं……
तो इतना लगाओ क्यों है ?
स्मृति साथ नहीं दे रही है
विछुडने के सोच से
आंसू नही रुक रहा है l
नहीं पता मुझे
आत्मा होती है या नहीं
अगर होती है ….
तो तुम्हारी भी होगी
उसका भी एक आशियाना होगा
वादा करता हूँ
मेंरी आत्मा,तुम्हारी आत्मा से
उस आशियाना में मिलेगी l
कालीपद ‘प्रसाद’
वाह वाह !
धन्यवाद विजय कुमार जी !
sundar bhaav..
धन्यवाद प्रीति दक्ष जी !