कविता

“शामियाने में”

कुछ तो बात खास है इस ज़माने में

मुसाफिर टिकता नहीं, आशियाने में

दूल्हा बन बारात, सबने किया होगा

आज गंवारा नहीं रुकना शामियाने में ||

 

क्या याराना है झूठ के ठिकाने में

लगन बड़ी तेज है समूचे बहाने में

अजब अहसान देकर जाते हैं लोंग

मिल बैठेंगे कभी, अभी हूँ निभाने में ||

 

यह नई राह किस मुकाम जायेगी

जाने कितने दिन रिश्ता निभाएगी

गिरना-उठना, फिसलना, तेरेरना

सम्मानित पतरिया किसे बुलाएगी ||

 

टेंट के वर्तनों में गिरती हया देखी

मैले गद्दों पर नई बीमारियाँ देखी

सजे मेज पर भिनभिनाते हुए लोंग

खैराती थाली में गिरती सिवैयां देखी ||

 

कभी चाव से भोजन कराती थी पंगत

तिन दिनी बारात निभाती थी संगत

संस्कारी जनवासे में सभा का दस्तूर

कमी में भी रश्में सजाती थी रंगत ||

 

कमर टूट जाती है मंडप सजाने में

सिंघा शहनाई की रश्म निभाने में

सात वचनों के घेरे में कसमें खाकर

मजा लेती है दुनियां फोटो खिचाने में ||

 

आंठवा वचन होगा आगे कबुलनामें में

पिज्जा-पनीर जहरीला ठंढा पिलाने में

सीधा-सादा खाना बारात लेके आना

खिचाडिया खिलाउंगी बैठो मडवाने में ||

महातम मिश्र

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

6 thoughts on ““शामियाने में”

  • राज किशोर मिश्र 'राज'

    बहुत बढ़िया मुक्तक

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद आदरणीय राजकिशोर मिश्र जी, आप लोंग ही मेरे प्रेरणास्रोत है मान्यवर

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत बढ़िया !

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद श्री विजय कुमार सिंघल जी, आभार

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मिश्र जी , आप ने सारी फोटो सामने ला दीं. बहुत दुःख होता है मुझे जब ऐसी बुरी ख़बरें पड़ता हूँ . किया हम इतने बुरे और जाहिल थे कि हम अपने बजुर्गों के आगे सर झुकाते थे ? १९६७ मैंने अपनी शादी दस ब्रातिओं के सार्थ ,बगौर वाजे और दान दहेज़ के करवाई थी ,अब तक परिवार में सुखी हैं .हम ने किया गलत किया जो आज अपने आप को मॉडर्न कहलाने वाले छोटी छोटी बात पर तलाक ले लेते हैं . आज पीजे बर्गर खा कर भी संतुष्ट नहीं ,हम ने तो वोह विवाह भी देखे जब नीचे बैठ कर चावल खंड और घी के साथ स्वागत किया जाता था और बरात को तीन दिन तक रखा जाता था . बजुर्गों का हुकम सर माथे पर माना जाता था और तलाक नाम का शब्द अभी इजाद ही नहीं हुआ था . इतना खर्चा करके दो दिन बाद शादी टूट जाती है , बच्चे पता नहीं असली हैं या नकली , किधर जा रही है यह दुनीआं ?

    • महातम मिश्र

      बिलकुल सही आदरणीय गुरमेल सिंह जी, बुजुर्गों का आशीष ही हमारे राह में सहायक हो रहा है जिसे हमें समझना होगा और बेमतलब की चमक से दूर रह अपने संस्कार और प्रयोजन को भारतीय तरीके से प्रोत्साहित करना होगा अन्यथा दिन प्रतिदिन हम बीमार होते जायेंगे जैसा परिवेश वैसा आहार व्यवहार का प्रचलन सर्वथा योग्य माना गया है जिसे धकेलकर हम निकलने की होंड में जलालत की चौखट पर खड़ें हैं……बहुत ही सराहनीय विचार हैं आप के मान्यवर आभार सह सादर धन्यवाद……

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