बीमार रहना अपराध है
बहुत से लोग सोचते हैं कि सभी लोग बीमार पड़ते रहते हैं, हम भी पड़ गये तो कोई बड़ी बात नहीं है। इसलिए वे बीमार रहने और उसका इलाज चलते रहने को साधारण बात मानते हैं। वे अपनी आमदनी का एक बड़ा भाग डाक्टरों और दवाओं पर खर्च करना भी अनिवार्य मानते हैं। ऐसे लोग गलती पर हैं। बीमार रहना स्वाभाविक बात नहीं है। वास्तव में स्वस्थ रहना ही पूरी तरह स्वाभाविक है और अस्वस्थ रहना एकदम अस्वाभाविक है।
स्वस्थ रहना बहुत ही आसान है और बीमार पड़ जाने पर स्वस्थ होना भी कठिन नहीं है। यदि हम खान-पान और रहन-सहन के साधारण नियमों का पालन करें, तो हमेशा स्वस्थ और क्रियाशील रहते हुए अपनी पूर्ण आयु भोग सकते हैं। आकस्मिक दुर्घटनाओं को छोड़कर लगभग सभी बीमारियां हमारी अपनी गलतियों का परिणाम होती हैं। उदाहरण के लिए, मेरे एक घनिष्ठ मित्र एक बार एक विवाह कार्यक्रम में गये और वहां दूसरों की देखादेखी शीतल पेय की तीन-चार बोतलें पी गये। दूसरे दिन सुबह उनका गला बैठा हुआ था, जुकाम और हल्का बुखार भी हो गया था। मुझे पता चला तो मैंने उनको डांटा और फिर उपाय बताया जिससे वे तीन दिन में ठीक हो गये।
अधिकांश बीमारियों का कारण प्रायः ऐसा ही होता है। हम स्वाद के वशीभूत होकर अखाद्य वस्तुएं खा जाते हैं, या खाद्य वस्तुएं अधिक मात्रा में खा जाते हैं, जिससे बीमारियां होती हैं। अधिक खाना, बहुत कम खाना, अधिक व्यायाम करना, व्यायाम न करना, अधिक सोना या बहुत कम सोना आदि ऐेसे ही कुछ कारण हैं जो हमें बीमार बनाते हैं। एक विद्वान् ने कहा है कि ‘Sick man is a rascal’ अर्थात् बीमारी बदमाशी का परिणाम है।
जब हम अपने खान-पान को नियंत्रित करके और थोड़ा सा व्यायाम करके स्वस्थ रह सकते हैं तो बीमार पड़े रहना एक सामाजिक अपराध है। बीमार आदमी समाज पर भार होता है, जबकि स्वस्थ आदमी समाज की निधि होता है। हमारा यह प्रयास होना चाहिए कि हम समाज पर भार न बनें, बल्कि सदा स्वस्थ रहते हुए समाज की सेवा करते रहें।
— विजय कुमार सिंघल
लेख में कही गई प्रत्येक बात सत्य है एवं सभी के लिए आचरणीय है। आपके विचार पढ़कर मुझे आयुर्वेद के एक सिद्धांत “ऋतभुक्, मितभुक् एवं हितभुक्” की याद आ गई। आपकी सद्भावनापूर्ण सलाह के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आभात, मान्यवर ! आपने आयुर्वेद के जिस सिद्धांत का उल्लेख किया है, उसके बारे में मैंने अपनी स्वास्थ्य रहस्य पुस्तिका में विस्तार से लिखा है. आगे किसी लेख में उसको प्रकाशित करूँगा.
हार्दिक धन्यवाद।
बहुत अच्छा लेख सरजी
धन्यवाद, कामनी जी.
बहुत अच्छा लेख . यह बात सही है कि जीभ के स्वाद की वजह से बहुत बिमारीआं लगती हैं . शादी विवाह के बाद मठाई के डिब्बे दिए जाते है . यह तो मैं नहीं कहूँगा कि हम मठाई नहीं खाते लेकिन एक दो टुकड़े खा कर हम पक्षिओं को डाल देते हैं . जब घर में मठाई नहीं होती तो कभी मठाई का विचार ही नहीं आता लेकिन जब घर में आ जाती है तो दिल करता है , इसी लिए थोड़ी सी खा कर बाहर फैंक देते है ,ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसरी .
भाई साहब, यही हाल मेरा है. घर में मिठाई होती है तो खाने का मन करता है. भोजन के बाद एकाध टुकड़ा मुंह में डाल ही लेता हूँ. यहाँ मुंबई में अभी अकेला हूँ, मिठाई भी नहीं है मेरे पास, इसलिए तलब भी नहीं होती. मिल जाती है तो खा लेता हूँ.