मंगल पाँडे
अग्रदूत बनकर स्वतंत्रता का ,
उसने शंखनाद किया !
लेकर साथ जवान,किसान,
शुरू उसने संर्घष किया!
देश को,आजाद कराने की ,
कसम उसने थी मन में खाई !
देश की खातिर मर मिटने की,
आग सीने में सुलगाई !
गाय ,सूअर की चर्बी से बनी,
कारतूस न उसने हाथ लगाई!
टकरा गया वो फिरंगीयों से
विद्रोह की चिंगारी उसने सुलगाई !
मंगल-मंगल गाकर क्या तुम
उसके जेसे बन जाओगे !
क्या फिर से आजादी की
शमाँ तुम जला पाओगे !
आँखें खोलो दुनियाँ वालों,
अपने लहू में भरो रवानी !
देश की शान की,खातिर मर मिटने की,
आग सीने मै जला पाओगे !
देश की खातिर,जो शहीद हो गये
बलिदान व्यर्थ न जाने दोगे !
सबक लो उन वीरों से तुम,
हँसकर सर्वस्व न्योछावर कर गये!
मंगल पाँडे से डरकर अंग्रेजो ने ,
चोंतीस हजार चार सौ पैंतिस कानून
भारत की जनता पर लगाये !
हिला दिया था फिरंगियों को उसने ,
देश की आजादी का सपना था,उसके मन में!
जागो मेरे देश के लालों,
फिर खून में वो उबाल भरो !
अपने हित से उपर उठकर ,
माँ भारती का ख्याल करो !
अपनी वर्दी की शान की खातिर
हूसन को मौत के घाट उतारा!
मौत नतमष्तक थी उसके आगे ,
हँसकर उसको भी गले लगाया !
“आशा” नमन है, शहादत को उनकी,
खुद मिटकर देश का मान बढ़ाया !
...राधा श्रोत्रिय”आशा”
मंगल पांडे की बलिदान भावना प्रशंसनीय है। लेकिन उनका एक नकारात्मक बिंदु भी है। 1857 की क्रांति के लिए ३१ मई का दिन निर्धारित किया गया था। परंतु मंगल पांडे ने अपने जोश में अनुशासन को ताक पर रखकर १० मई को ही इसका प्रारम्भ कर दिया। इस कारण से भ्रम फैल गया और क्रांति पूरे पैमाने पर नहीं हुई। इस असफलता के कारण यह क्रांति केवल विद्रोह बनकर रह गयी।
बहुत अछे विचार आप के जिन्होंने मंगल पांडे जैसे महान पुरषों की याद दिला दी .
बहुत सुंदर रचना।
बहुत ही प्रेरक रचना सम्माननीया राधा श्रोत्रिय जी