दो मुक्तक
भ्रांतियों में जी रहा है आदमी
जहर को यूँ पी रहा है आदमी
फंस गया पाखंडियों के जाल में
झूठ का क़ैदी रहा है आदमी
सत्य का पालक यहाँ कोई नहीं
न्याय संरक्षक रहा कोई नहीं
आम जन है भटकता संसार में
मार्गदर्शक मिल रहा कोई नहीं
— विजय कुमार सिंघल
bahut sundar muktak bhaiya
धन्यवाद, गुंजन. (अब ‘जी’ नहीं लगाऊंगा तुम्हारे लिए.)
वाह आदरणीय बहुत की लाजवाब मुक्तक सामांत एवम् पदांत का काबीले तारीफ निर्वहन के लिए आभार
हृदय से आभार, बंधु ! मुझे डर था कि छंद गलत न हो गया हो।
बहुत खूब सरजी…
धन्यवाद, कामनी जी।
फंस गया पाखंडियों के जाल में
झूठ का क़ैदी रहा है आदमी
wahh bahot khoob.. vijay ji mujhe bhi muktak likhna seekhna hai ..
आभार। मुक्तक लिखना कोई कठिन कार्य नहीं है। बस छंद और तुकांत का ध्यान रखना पडंता है। सभी पंक्तियाँ समान लम्बाई की होनी चाहिए और तीसरी के अलावा सभी का तुकांत समान होना चाहिए।
आप कोशिश कीजिए। कोई कमी होगी तो मैं सुधार दूँगा।
विजय भाई , मुक्तक बहुत अछे लगे ,
सत्य का पालक यहाँ कोई नहीं
न्याय संरक्षक रहा कोई नहीं
आम जन है भटकता संसार में
मार्गदर्शक मिल रहा कोई नहीं , बहुत सही लिखा .
बहुत बहुत धन्यवाद, भाई साहब ! बस आज अचानक एक विचार आया और लिख दिया। मुझे प्रसन्नता है कि आप सबको पसंद आया।
अति श्रेष्ठ, प्रशंसनीय एवं यथार्थ स्थिति व्यक्त करने वाले मुक्तक। यह इतने अच्छे लगे कि मैं अपनी प्रसन्नता को शब्द नहीं दे पा रहा हूँ। यदि हो सके तो कभी ईश्वर, जीव व प्रकृति पर एक, दो या तीन मुक्तक, कविता व दोहें आदि प्रस्तुत करें। हार्दिक धन्यवाद।
प्रणाम मान्यवर ! आभारी हूँ आपका।
आपके आदेशानुसार कुछ लिखने का प्रयास करूँगा।
बहुत सुंदर मुक्तक श्रीमान जी बधाई हो।
धन्यवाद, बन्धु !