ग़ज़ल
उन्हें पता है, जिसने बीज विष के बोये हैं
कैसे-कैसे अबतक किसान, देश के रोये हैं।
बन रहे महलों के साए में हैं किसके साए
भरी जवानी, औ’ बुढापा जिसने खोये हैं।
लह-लहाते खेतों से जो पालते रहे अरमाँ
हुए लहू – लुहान, आँसू आठ-आठ रोये हैं।
कर्जों से लदा स्वाभिमान आखिर कबतक
अरमानों के लाश, जिसने कन्धों पे ढोए हैं।
जी भरता नहीं भरा नहीं, मिचलाता भी नहीं
जिसने जी के खातिर, सपनों को संजोये हैं।
— श्याम स्नेही
ग़ज़ल के महफूम ताज़ातरीन हैं मगर, म’आज़रत के साथ यह कहना पड़ रहा है कि बहर की तंगी नज़र अंदाज़ नहीं हो पा रही है। एक काबिल कामिल कवि के मद्देनजर यह आश्चर्य की बात है।
शानदार गजल !