मधुगीति : तरोताज़ा सुघड़ साजा !
तरोताज़ा सुघड़ साजा, सफ़र नित ज़िन्दगी होगा;
जगत ना कभी गत होगा, बदलता रूप बस होगा !
जीव नव जन्म नित लेंगे, सीखते चल रहे होंगे;
समझ कुछ जग चले होंगे, समझ कुछ जग गये होंगे !
चन्द्र तारे ज्योति धारे, धरा से लख रहे होंगे;
अचेतन चेतना भर के, निहारे सृष्टि गण होंगे !
रचयिता जान कुछ लेंगे, बिना कुछ जाने चल देंगे;
प्रकृति की गति चले होंगे, कोई प्रकृति तरे होंगे !
तटस्थित कोई होवेंगे, द्रष्टि में जग लिये होंगे;
लिये उनकी लहर कोई, ‘मधु’ मन गा रहा होगा !
— गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा