आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 25)
मोना की पढ़ाई
हमारी पुत्री आस्था ने कौशलपुरी के सनातन धर्म सरस्वती शिशु मंदिर से कक्षा 5 पास कर लिया था। उससे आगे ही पढ़ाई वहाँ अच्छी नहीं होती थी, इसलिए हमने बी.एन.एस.डी. शिक्षा निकेतन में ही उसका कक्षा 6 में प्रवेश कराना तय किया, जहाँ उसका भाई दीपांक पहले से पढ़ रहा था। उसका प्रवेश भी प्रवेश परीक्षा के आधार पर आसानी से हो गया। वहाँ पढ़ाई अच्छी होती थी, लेकिन वह केवल एक साल ही उसमें पढ़ सकी, क्योंकि इससे पहले ही मेरा स्थानांतरण कानपुर से पंचकूला हो गया था।
पुनः मकान बदलना
बुढ़िया के मकान को छोड़ने का मन बना लेने पर मैंने मकान देखना प्रारम्भ किया। एक स्वयंसेवक ने हमें एक मकान बताया, जो नेहरू नगर में कमला नेहरू पार्क के बिल्कुल सामने मुख्य सड़क पर था। उसमें आगे के भाग में सड़क की ओर नीचे दुकानें थीं और ऊपर हमारा फ्लैट था। पीछे के भाग में मकान मालिक श्री उमा नाथ अवस्थी रहते थे। उनको सब सम्मान से ‘पापाजी’ कहते थे। पापाजी रिटायर्ड शिक्षक थे और पहले रसायन विज्ञान (केमिस्ट्री) पढ़ाया करते थे। उनका और उनकी पत्नी ‘मम्मीजी’ का स्वभाव इतना अच्छा था कि शब्दों में नहीं बता सकता। नवम्बर 2004 में जिस दिन हम उनके यहाँ सामान लेकर आये थे, उस दिन हमारा दोपहर का भोजन उन्होंने अपने आप ही बना दिया था और हमें आग्रहपूर्वक खिलाया था।
उनके एक विवाहित पुत्र भी हैं, जो कानपुर में ही सर्वोदय नगर में अलग घर में रहते हैं। वे अपनी पत्नी श्रीमती रीता के साथ कभी-कभी वहाँ आया करते थे और हमारी भेंट हो जाती थी। पापाजी के कई पुत्रियाँ भी हैं, जो सभी विवाहित हैं और दूर-दूर के शहरों में रहती हैं।
उस घर में हम आनन्द से रह रहे थे। कोई कष्ट नहीं था। पापाजी और मम्मीजी हमें इतना प्यार और सम्मान देते थे कि शब्दों में नहीं बताया जा सकता। वहाँ से मेरा आॅफिस थोड़ा दूर पड़ता था, इसलिए ज्यादातर रिक्शे पर जाता था। परन्तु वहाँ हम केवल 6 माह ही रह सके, क्योंकि मार्च में ही मेरा स्थानांतरण पंचकूला हो गया।
पंचकूला स्थानांतरण
अपने स्थानांतरण का आदेश आने से पहले मैंने पंचकूला का नाम भी नहीं सुना था और इस बात का कुछ पता नहीं था कि यह शहर कैसा और कहाँ पर है। पूछताछ करने पर ज्ञात हुआ कि यह शहर यों तो हरियाणा में है, लेकिन चंडीगढ़ से सटा हुआ है। व्यावहारिक दृष्टि से पंचकूला चंडीगढ़ का ही एक मौहल्ला माना जाता है, ठीक वैसे ही जैसे शुक्लागंज (जिला उन्नाव) को कानपुर का एक मोहल्ला मानते है। वहाँ हमारे बैंक ने एक प्रशिक्षण संस्थान खोला था, जो उस समय तक ठीक से प्रारम्भ नहीं हुआ था। केवल एक सहायक महाप्रबंधक और दो-तीन अधिकारी वहाँ लगाये गये थे, जिनका कार्य था संस्थान को प्रारम्भ करना। वहाँ के सहायक महा प्रबंधक थे श्री गया प्रसाद गौड़, जिन्होंने मेरे साथ ही लखनऊ में इलाहाबाद बैंक में सेवा प्रारम्भ की थी। कालांतर में वे सहायक महाप्रबंधक हो गये थे और मैं केवल वरिष्ठ प्रबंधक के पद तक पहुँच पाया था।
जिस समय मेरा स्थानांतरण आदेश आया, उस समय कानुपर मंडलीय कार्यालय में मेरे कम्प्यूटर केन्द्र में मेरे साथ केवल श्रीमती रेणु सक्सेना और श्री के.सी. श्रीवास्तव पदस्थ थे। के.सी. जी का होना न होना बराबर था और सारा कार्य मैं और रेणु जी बाँटकर किया करते थे। कई कार्य मैं अकेले ही कर लेता था। इसलिए यह आवश्यक था कि जाने से पहले वे सारे कार्य रेणु जी को समझा जाता, अन्यथा मेरे जाने के बाद उनको बहुत परेशानी होती। मेरा स्थानांतरण का आदेश शुक्रवार 4 मार्च 2005 को आया था और अगले ही दिन 5 मार्च को मुझे कार्यमुक्त करने की सूचना के साथ ही यह आदेश दिया गया था कि मैं एक सप्ताह की ज्वाइन करने की छुट्टी लेने के बाद 14 मार्च (सोमवार) को पंचकूला में कार्यभार ग्रहण कर लूँ।
मैं चाहता था कि बीच में मुझे जो एक सप्ताह का अवकाश दिया जा रहा था, वह उस समय न मिलकर बाद में कभी मिले, ताकि मैं उस सप्ताह कानुपर में ही अपना कार्य अन्य अधिकारियों को समझा सकूँ। अधिकांश मामलों में स्थानांतरित होने वाले अधिकारियों को यह सुविधा दी जाती है कि स्थानांतरण पर मिलने वाला एक सप्ताह का अवकाश वे बाद में ले सकते हैं। लेकिन हमारे तत्कालीन सहायक महाप्रबध्धक श्री आर.के. ढींगरा ने इस मामले में मुझे आवश्यक सहयोग नहीं किया, हालांकि मैंने इसके लिए बाकायदा आवेदन दे दिया था। अगले दिन 5 मार्च को एक अन्य अधिकारी श्री एन.के. शर्मा (मुख्य प्रबंधक) की भी विदाई होनी थी, अतः उन्होंने उनके साथ ही मेरी भी विदाई कर दी।
विदाई के बाद भी मैं पूरे सप्ताह मंडलीय कार्यालय आता रहा और सारे कार्य एक-एक करके श्रीमती रेणुजी को समझा दिये। इसका तात्पर्य है कि मेरी एक सप्ताह की छुट्टियाँ बेकार हो गयीं। उस समय तक हमारे बच्चों की परीक्षाएँ नहीं हुई थीं और दीपांक तो हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा दे रहा था, इसलिए मैंने 2 माह तक आगे भी उसी फ्लैट में परिवार को रखने की अनुमति ले ली और स्वयं अकेला ही पंचकूला चला गया।
पंचकूला में
पंचकूला में मेरे प्रयास करने पर कई संदर्भ मिल गये। एक तो श्री गुलशन कपूर, जो मेरे साथ कानपुर मंडलीय कार्यालय में काफी समय रहे थे, चंडीगढ़ स्थानांतरित हो गये थे और उनका अपना मकान पंचकूला में है। उनसे बात करने पर उन्होंने मुझे पहले अपने ही पास आने की सलाह दी और कहा कि सारी व्यवस्था हो जायेगी।
दूसरे श्री इंद्रम नंदराजोग भी उस समय चंडीगढ़ मंडलीय कार्यालय में आ गये थे। वे भी कानपुर में मेरे साथ मंडलीय कार्यालय में रहे थे और उनका भी फ्लैट पंचकूला में है।
तीसरे श्री एस.एल. लूथरा उस समय चंडीगढ़ मंडल की किसी शाखा में थे और उनका अपना मकान खरड़ नामक कस्बे में है, जो चंडीगढ़ से केवल आधा घंटे के रास्ते पर है।
चौथे श्री गया प्रसाद गौड़ हमारे सहायक महा प्रबंधक थे ही।
इन सबसे अलावा एक संदर्भ मेरे भतीजे डा. मुकेश चन्द ने दिया था, जो एक सरदार परिवार का था। उनकी पुत्री मुकेश के किसी चचेरे साले को ब्याही थी, जो प्रेम विवाह था। वे चंडीगढ़ में रहते हैं. मुकेश ने उनसे बात की, तो उन्होंने मुझे पहले अपने पास ही भेजने को कहा और वायदा किया कि मुझे कोई कष्ट नहीं होने दिया जाएगा। परन्तु मैं उनकी इस उदारता का कोई लाभ नहीं उठा सका।
मैं कालका मेल से चंडीगढ़ पहुँचा, जो प्रातः 4 बजे पहुँचती है। मैंने उस समय स्टेशन से बाहर निकलना उचित नहीं समझा और 2 घंटे प्लेटफार्म पर ही बैठा रहा। प्रातः 6 बजे मैं स्टेशन से पंचकूला की तरफ बाहर निकला। यहाँ यह बता दूँ कि चंडीगढ़ रेलवे स्टेशन के एक ओर चंडीगढ़ शहर है और दूसरी ओर पंचकूला है। स्टेशन और पंचकूला के बीच में लगभग 1 कि.मी. चौड़ा क्षेत्र है जो चंडीगढ़ में पड़ता है।
मैं रिक्शा करके पंचकूला की ओर चला। जैसे ही रिक्शा पंचकूला की सीमा में पहुँचा, तो मैं देखकर आश्चर्यचकित हो गया। लगा कि जैसे किसी और ही दुनिया में आ गया हूँ। चौड़ी-चौड़ी खूबसूरत सड़कें, साफ-सुथरे फुटपाथ, किनारों पर तरतीब से बने हुए सुन्दर मकान, निर्धारित स्थानों पर बाजार, सड़कों के किनारे कोई दुकान भी नहीं। आवारा घूमते सूअर और जानवर भी नहीं। पहली नजर में ही मुझे पंचकूला से प्यार हो गया।
केवल 20 मिनट में मैं थोड़ा खोजने के बाद श्री गुलशन कपूर के मकान पर पहुँच गया, जो सेक्टर 4 में है। वे उस समय सोये हुए थे। मुझे देखकर वे प्रसन्न हुए। उनके मकान में ऊपर एक कमरा खाली था, मेरे ठहरने की व्यवस्था उन्होंने वहाँ कर दी।
कार्यालय का हालचाल
ठीक 10 बजे तैयार होकर और जलपान करके गुलशन जी के साथ ही मैं अपने नये कार्यालय में गया। यह था इलाहाबाद बैंक का ‘अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान’ जिसे बोलचाल में आई.आर.टी. कहते हैं। यह सेक्टर 14 में अमरटैक्स चौराहे के निकट स्थित है। उस समय गौड़ साहब वहाँ नहीं थे, क्योंकि वे सपरिवार दक्षिण भारत घूमने गये हुए थे। मेरे साथ एक अन्य अधिकारी ने भी उस संस्थान में पहली बार अपनी उपस्थिति दी थी। वे थीं जयपुर की श्रीमती प्रीति सैनी। उनसे मेरा मामूली परिचय था। एक बार जब मैं कम्प्यूटर अधिकारियों के सम्मेलन में लखनऊ आया था, तब वे भी उसी सम्मेलन में आयी थीं। तभी उनसे परिचय हुआ था। पंचकूला में उनको देखकर मैं नहीं पहचान पाया, लेकिन उन्होंने मुझे फौरन पहचान लिया। वे अपने पति श्री सुनील कुमार के साथ आयी थीं। उनसे भी मेरा परिचय कराया गया।
गौड़ साहब के अलावा वहाँ तीन अधिकारी और थे। एक श्री विजय सिंह (प्रबन्धक), दूसरे श्री महेश्वर सिंघा (प्रबंधक) और तीसरे श्री कनिष्क बाजपेयी (अधिकारी)। इनके अलावा कोई नहीं था, चपरासी भी नहीं। तीन प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड अवश्य थे, जो 8-8 घंटे की ड्यूटी करते थे। इस प्रकार 24 घंटे वहाँ सुरक्षा थी। प्रायः सुरक्षा गार्डों से ही चपरासी का भी कार्य लिया जाता था।
उस दिन वहाँ एक प्रशिक्षण कार्यक्रम चल रहा था, जो उस संस्थान में पहली बार हो रहा था। उसमें लगभग 40 लोग शामिल हुए थे। वहीं हमारे तत्कालीन उप महाप्रबंधक (आईटी) श्री श्रवण कुमार श्रीवास्तव भी आये थे। उनसे मेरा अच्छा परिचय था। वास्तव में उन्होंने ही मेरी पोस्ंिटग पंचकूला में की थी। मुझे वहाँ आया जानकर वे प्रसन्न हुए।
वहाँ से गुलशन जी का घर हालांकि केवल दो किमी दूर था, लेकिन नया स्थान होने के कारण मेरे आने-जाने की समस्या थी। सीधे टैम्पो वहाँ नहीं जाते और रिक्शे बहुत मँहगे हैं। इसलिए मैंने यही उचित समझा कि जब तक अपने निवास की कहीं और व्यवस्था नहीं हो जाती, तब तक मैं संस्थान में ही किसी कमरे में रुक जाऊँ। उस समय हालांकि सारे कमरे भरे हुए थे, लेकिन एक कमरे में एक सीट खाली थी। उसमें दूसरी सीट पर श्री रवि भूषण, मुख्य प्रबंधक (आईटी) रह रहे थे। मैंने उनके साथ ही अपनी व्यवस्था कर ली और अपना सामान ले आया। वहाँ उस सप्ताह प्रशिक्षण कार्यक्रम चलने के कारण एक केटरर लगा हुआ था। इसलिए खाने-पीने की भी कोई समस्या नहीं थी। अगले सप्ताह से मैंने अपने लिए टिफिन लगा लिया, जो दो बार आ जाता था। अच्छा घर जैसा खाना उचित दामों में मिल जाता था, अतः मैं आराम से था।
विजय भाई , आज का परसंग भी अच्छा लगा ख़ास कर चंडीगढ़ की पुरानी याद ताज़ा हो गई. शादी के बाद १९६७ में हम पती पत्नी ने यहाँ एक हफ्ता बिताया था . उस समय भी बहुत साफ़ दिखाई देता था . चंडी गढ़ सैक्टरों से ही बंटा हुआ है और उस समय हम झील पर बोटिंग भी करने गए थे और पिंजौर गार्डन भी गए थे और वहां हम ने औतुमैतिक रौलिफ्लैक्स कैमरे से खुद की फोटो खिंची थी जो अभी भी एल्बम में ग्लू के साथ सटिक की हुई है .
नमस्ते भाईसाहब ! पंचकूला भी बिल्कुल चंडीगढ़ जैसा ही बसा हुआ है। मोहाली भी ऐसा ही है। इन तीनों को व्यावहारिक दृष्टि से एक ही शहर समझा जाता है।
आज की घटनाओं को पढ़कर प्रसन्नता हुई। सभी घटनाएँ रोचक एवं प्रभावशाली है। हार्दिक धन्यवाद।
आभार मान्यवर !