मेरी कहानी – 45
स्कूल में तो अब बहुत दोस्त बन गए थे। स्कूल से वापिस गाँव में आ कर भी कुछ घर का काम करते और फिर गाँव में भी घुमते रहते। जीत का घर तो गाँव की दुसरी ओर था लेकिन रात को वोह मेरे घर आ जाता था। हम इकठे पड़ते और वहीँ सो जाते। सुबह उठते ही वोह अपने घर चले जाता था। अभी बिजली आई नहीं थी ,टेबल लैम्प की रौशनी से ही पड़ते थे। गर्मिओं के दिनों में छत पर सोते थे और पड़ने के लिए लैंटर्न होती थी। गर्मिओं में एक मुसीबत होती थी कि लैंटर्न की लौ को पतंगे बहुत आते थे। हमारी लैन्टर्न कुछ लीक करती थी और हम लैंटर्न को एक थाली में रख देते थे। पतंगे जिन को हम भावकड़ कहते थे आते रहते और जल जल कर थाली में गिरते जाते। सुबह को थाली मरे हुए भवकड़ों से तकरीबन आधी होती थी। हर सुबह हम को साफ़ करनी पड़ती। इस बात पर भी जीत बहुत हंसा करता था।
अब गाँव में बिजली आने की बातें होती रहती थीं ,मिनिस्टर आते रहते थे। यह शायद १९५८ था कि एक दिन हमें पंचायत ने बता दिया कि बिजली मंजूर हो गई थी और जिस ने भी फिटिंग करानी हो करा ले। हमारे घर भी कुछ इलैक्ट्रीशियन आये। दादा जी के साथ बात हुई और बिजली की फिटिंग का कॉन्ट्रैकट हो गिया। फिटिंग के लिए जो जो सामान चाहिए था इलैक्टीरीशिअन ने लिखा दिया। एक दिन दादा जी जालंधर गए और सारा सामान रेहड़े पर लाद कर ले आये और बिजली की फिटिंग का काम शुरू हो गिया। अब तो यह घर कब का हम बेच चुक्के हैं और नया घर गाँव के बाहर है लेकिन यह वोह ही घर था जो किसी समय पशुओं की हवेली होती थी और बटवारे के समय मोहल्ले के लोग यहां जमा हो जाते थे ताकि मुसलमान हमला न कर दें। दो हफ्ते में सारी फिटिंग हो गई। जगह जगह बल्व लग गए। घर के बाहर दरवाज़े पर भी एक बड़ा ग्लोब लगा दिया गिया । मीटर भी लग गिया। हम देख देख कर खुश होते ,स्कीमें लगाते कि कहाँ कहाँ किया किया रखना था , रेडिओ कहाँ रखना था। फिर एक दिन पिता जी अफ्रीका से आ गए और फिटिंग देख कर खुश हो गए। अब इलैक्ट्रिक रेडिओ खरीदने की बात चल पड़ी। एक दिन मैं और पिता जी फगवारे गए और रेडिओ की दुकानों पर रेडिओ पसंद करने लगे। उस समय फगवारे में तीन दुकाने थीं रेडिओ की और एक दूकान में एक रेडिओ हमें पसंद आ गिया। रेडिओ बहुत सुन्दर था। रेडिओ होगा कोई चार पांच सौ का ,मुझे ठीक याद नहीं। हम एक खादी का भारी कपडा साथ ले गये थे। रेडिओ को खूब अच्छी तरह कपडे से बाँधा और साइकल की पिछली सीट पर बाँध दिया और गाँव को रवाना हो गए
घर आ कर रेडिओ को जो मेरे कमरे में शैल्फ थी उस पर रखा गिया। रेडिओ के दोनों तरफ फूलदानों को रख दिया गिया जिन में बहुत सुन्दर कागज़ के फूल रखे हुए थे। रेडिओ को प्लग से सॉकेट में लगा दिया। बस ,अब इंतज़ार था तो सिर्फ करंट का। और वोह दिन भी आ गिया जिस दिन सविच ऑन होने का उदघाटन होना था। कोई मिनिस्टर आया हुआ था शायद हंस राज शर्मा था। यह प्रोग्राम स्कूल में था और घर बैठे हम लाऊड स्पीकर में किसी को बोलते सुन रहे थे। फिर अचानक बिजली आ गई। हम ने घर के सारे बल्व जगा दिए ,रेडिओ ऑन कर दिया ,रेडिओ जालंधर बोलने लगा। घर में एक शादी का माहौल सा था। इर्द गिर्द के लोग रेडिओ की आवाज़ ऊंची करने को कह रहे थे। कमरे के बाहर दरवाज़े के ऊपर एक दरवाज़े के साइज़ की शैल्फ होती थी जिस को छाएदान कहते थे ,उस के ऊपर हम ने रेडिओ रख दिया ताकि मोहल्ले के सभी लोग सुन सकें। रेडिओ फुल वौलियम पर बोल रहा था। गर्मिओं के दिन थे और औरतें बच्चे मर्द धियान से रेडिओ सुन रहे थे। फिर यह रोज़ाना का सिलसिला शुरू हो गिया। लोग अपने अपने घरों की छतों पर बैठ जाते। दिहाती प्रोग्राम बहुत शौक से सुना जाता था ,जिस में संत राम और ठंडू राम की आपस में बातें होती थी और मीठी नोंक झोंक भी होती थी । इस में खेती बाड़ी का प्रोग्राम ही ज़्यादा होता था। फिर मंडीओं के भाओ बताते थे और मौसम का हाल भी बताया जाता था। यह प्रोग्राम जालंधर से पर्सारत होता था और पंजाब में घर घर सुना जाने लगा था। यह प्रोग्राम खत्म होते ही आकशवाणी दिली से ख़बरें नशर होने लगती थी। पहले एक औरत की आवाज़ आती ,” यह औल इंडिया रेडिओ है ,अब समाचार होंगे , पहले हिंदी में ,फिर पंजाबी में और इस के बाद अंग्रेजी में ” ख़बरों के बाद कोई ड्रामा शुरू हो जाता जिस को पड़ोसी अपनी अपनी चारपाईओं पर लेटे हुए सुनते। इस के बाद अगर हमारा मन करता तो सदाए वतन प्रोग्राम जो कश्मीर से पर्सारत होता था सुन लेते जो उर्दू में ही होता था। जब से पिता जी अफ्रीका से आये थे जीत अपने घर ही सोने लगा था। क्योंकि रौशनी की अब कोई दिकत नहीं थी ,इस लिए मैं किताबें ले कर पड़ता भी रहता और रेडिओ भी सुनता रहता। पिता जी अब हमेशा के लिए अफ्रीका छोड़ आये थे क्योंकि वोह रिटायर हो चुक्के थे। उन्होंने एक पैट्रोल कम्पनी जिस का नाम कालटैक्स होता था उस में पचीस वर्ष काम किया था। रिटायर होने पर उन्हो को सोने का एक छोटा सा मेडल दिया गिया था और ग्रुप फोटो ली गई थी जिस में फ्रंट रो में कुर्सिओं पर कुछ गोरे अफसर बैठे हुए थे।
पिता जी के पास क्योंकि ब्रिटिश पासपोर्ट था( उस वक्त अफ्रीका में अंग्रेज़ों का राज था ) ,इस लिए वोह जब मर्ज़ी इंग्लैण्ड आ सकते थे। कुछ ही महीनों के बाद उन्होंने इंग्लैण्ड आने का मन बना लिया। पिता जी बेकार बैठ नहीं सकते थे ,इस लिए उन्होंने शिप की सीट बुक कराई। वोह बाई सी जाना ही पसंद करते थे , इसी लिए हमारे घर में उन की शिप में ली हुई फोटो बहुत होती थी ,जिन में ख़ास कर सुएज कैनाल की होती थीं। रास्ते में छोटे छोटे आइलैंड जो आते थे ,उन की फोटो ली गई थीं। शिप के सीन बहुत होते थे। फिर वोह अपना सामान पैक अप करने लगे। उन के पास एक काफी बड़ा लकड़ी का बक्स होता था जो उन्होंने खुद अफ्रीका में बनाया था ,उस में बहुत से कार्पेंटरी के टूल रखे जिन की उन्हें आशा थी कि यह टूल इंग्लैण्ड में उन के काम आएँगे , हालांकि यह टूल उन के कभी काम नहीं आये और कुछ टूल अभी भी मेरी शैड में पड़े हैं जिन में एक चाक़ू होता था जिस का हैंडल बहुत खूबसूरत होता था और इस को मेरा एक दोस्त हंस कर कौड़ीआं वाला चाक़ू कहा करता था और यह अभी भी मेरे टूल बॉक्स में है। फिर उन्होंने हरी सिंह ऐंड सन्ज़ ट्रैवल एजेंट जालंधर से सीट बुक कराई। यह ट्रैवल एजेंट का ऑफिस पंजाब नैशनल बैंक के नज़दीक होता था। जिस दिन जाना था किसी का छकड़ा किराए पर लिया गिया। साथ दो मज़दूर थे। यह लोग पिता जी को फगवारे ट्रेन में बिठा आये। पिता जी की शुरू से ही एक आदत थी कि वोह हर खत डिटेल के साथ लिखा करते थे। पहला खत उन का बौम्बे से जिस को अब मुंबई कहते हैं ,आया। इस में सफर की हर बात लिखी हुई थी। इस के बाद शायद तीन हफ्ते बाद टिलब्री डॉक यार्ड इंग्लैण्ड से खत आया और इस के बाद हम सब भूल गए और उन का खत लिखने का जो रूटीन होता था ,उस के हिसाब से खत आने लगे जिन में उस वक्त के हालात लिखे हुए होते थे कि इंग्लैण्ड की ज़िंदगी बहुत कठोर थी। नहाने का घरों में कोई इंतज़ाम नहीं था और हफ्ते बाद पब्लिक बाथ में जा कर नहाना पड़ता था। इस के लिए दो शिलिंग देने होते थे और वोह एक नया तौलिआ और साबुन की छोटी सी टिकी देते थे। वोह रोज़ नहाने के आदि थे और इस को ले कर वोह बहुत परेशान रहते थे। एक एक घर में बहुत इंडियन रहते थे जो अपनी अपनी दालें सब्ज़ियाँ रोटी पकाते थे और पतीले अपनी अपनी चारपाईओं के नीचे रखते थे क्योंकि रसोई में इतने पतीले रखने के लिए जगह नहीं होती थी। अक्सर वोह यह ही लिखते रहते थे कि ज़्यादा देर इंग्लैण्ड में नहीं रहेंगे। अपने कपडे भी खुद धोने पड़ते थे। अफ्रीका में उन्होंने बहुत मज़े किये थे और घर में अफ्रीकन नौकर आम मिल जाते थे लेकिन यहां तो सब कुछ इलग्ग ही था। लेकिन वक्त को कोई नहीं जानता। १९५८ के आये वोह १९६४ में वापस इंडिया आये।
जीत अब फिर मेरे घर सोने लगा था। मेरे घर सोने का एक कारण यह होता था कि मेरे पास हारमोनियम होता था जो मैं तो बजाता ही था जीत भी बजा लेता था। मुझे बांसुरी बजाना भी आता था हालांकि सिर्फ फ़िल्मी तर्ज़ ही बजा सकता था। पड़ते पड़ते जब बोर हो जाते तो हमारी राग विद्या शुरू हो जाती। घर की रसोई ऊपर ही होती थी। माँ दूध गर्म करके आवाज़ें देती कि दूध ले जाओ। हम अपनी राग विद्या में इतना मगन होते कि हमें आवाज़ सुनाई ना देती ,फिर वोह जोर से बोलती ,” ओ रागीओ ! दूध ले जाओ “. फिर हम दोनों ऊपर जा कर अपने ग्लास ले आते। नौवीं कक्षा की परीक्षा को तीन महीने रह गए थे। एक दिन हम चारों दोस्तों ने मशवरा किया कि रोज़ रोज़ गाँव से स्कूल को जाने की बजाये क्यों न फगवारे ही रहा जाए, इस से इम्तिहान की तैयारी करने में आसानी हो जायेगी। बहादर के चाचा जी का एक मकान बना हुआ था फगवारे सैंट्रल टाऊन में जो टाऊन हाल के नज़दीक ही था। इस में तीन कमरे थे और पीछे एक छोटा सा आँगन था। हम चारों ने फैसला कर लिया और घर वालों को बता दिया। घर वालों ने इस में कोई आपत्ति नहीं जताई। बहादर के चाचा जी ने भी कुछ नहीं कहा । एक दिन हम ने अपने बिस्तरे बाइसिकल की पिछली सीट पर बांधे और चल दिए। मकान आने पर बहादर ने बाहर के आँगन को जाने वाले दरवाज़े का ताला खोला। फिर एक कमरे का ताला खोला जिस में हम ने सामान रखना था। . अंदर जा कर हम ने बिस्तरे नीचे फर्श पर ही लगा दिए क्योंकि चार चारपाईआं नहीं आ सकती थीं। जो मिडल वाला छोटा कमरा था ,उस में पहले ही एक कालज का विद्यार्थी रहता था जो रामगढ़िया पॉलिटैक्निक में सिविल इन्ज्नीरिंग कर रहा था। उस के कमरे का दरवाज़ा बाहर को खुलता था. इस विदियार्थी का नाम भगीरथ था। भगीरथ बहुत अच्छा लड़का था और अपनी रोटी खुद ही बनाया करता था।
धीरे धीरे हम ने सारा सामान ,स्टोव चाय बनाने के लिए और एक बिजली का रेडिओ बहादर ले आया था । कुछ कप प्लेटें खंड और चाय पत्ती भी रख ली। दो कुर्सियां भी रख लीं और कपडे किताबें सब कुछ आ गिया और हमारा कमरा सज गिया। रोटी का भी हम ने रेलवे रोड पर प्रभात होटल में खाने का मन बना लिया और हर फ्राइडे को हम ने गाँव आ जाय करना था और रविवार को वापस आ जाय करना था। जब पहली रात हम अपने इस कमरे में सोये तो हम बहुत खुश थे। हमारे लिए यह एक आज़ादी ही थी जिस में घर वालों का कोई डर नहीं था।
चलता…………
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपकी आत्मकथा पढ़कर मुझे भी याद आई कि मैंने सन १९७० में ३ किस्तों में फिलिप्स ट्रांज़िस्टर का फिलेटीना मॉडल अपनी कमाई से लिया था। कक्षा १२ पास करके मैं एक टाइपिंग व अख़बारों की दुकान पर काम करता था और साइंस ग्रेजुएट की पढाई भी कर रहा था। इस ट्रांज़िस्टर को खरीद का मुझे बहुत प्रसन्नता हुई थी. मूल्य लगभग १५० या २०० रूपये था। पिताजी के एक परिचित श्री संतोष बाबू की एजेंसी थी। बाद में वह मेरे एक मित्र आर्य विद्वान प्राध्यापक स्वर्गीय श्री अनूप सिंह के मित्र होने के कारण मेरे भी निकट परिचित हो गए थे। उन दिनों हमें फ़िल्मी गाने ही पसंद थे। बिनाका हमारा सबसे पसंदीदा कार्यक्रम होता था। मैंने भी अपने मित्र के साथ घर पर वा पार्क के जाकर पढाई की है। बीएससी के दिनों में गणित के खूब सवाल वहां की ठंडी हवा में हल करते थे। बहुत आनंद के दिन थे। आज की क़िस्त पढ़कर आनंद आ गया। आपका हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन जी , मुझे बहुत अच्छा लगा कि आप ने अपनी याद मुझ से शेअर की . हम भी पहले रेडिओ सलोन ही सुना करते थे और फिर विवध भारती शुरू हो गिया था .रेडिओ सलोन पर जो हॉर्लिक्स की ऐद्वर्ताइज़्मैन्त होती थी उस की हम मिम्करी किया करते थे . एक सजन जो बोलते थे उन का नाम तो मुझे याद नहीं लेकिन किसी विगिआपन को बोलने का ढंग उन का बहुत अच्छा होता था जैसे ” जी हाँ ,सुबह ही सुबह आप को नींद के झोंके महसूस होते हैं ! हॉर्लिक्स पीजिये और और दिन भर ताज़ा और दंदृस्त रहिये “. अपनी कमाई से अपना खरीदा रेडिओ एक अजीब ही ख़ुशी आप को देता होगा ,यह मेरा मानना है .
धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। बिनाका के साथ श्री अमीन सायानी जी का नाम भी याद आया। उनका प्रस्तुतीकरण लाजवाब होता था। लतामुंगेश्वर जी की ही तरह से उनका गला भी बहुत सुरीला व शब्दों का उच्चारण बहुत स्पष्ट होता था। विविध भारती भी सुना है परन्तु हमारे ट्रांज़िस्टर में यह ठीक से पकड़ता नहीं था। देहरादून में ऐसी चाय की दुकाने थी जहाँ अपनी फरमाइश के गाने सुनते थे। एल्बम में से सलेक्ट करके एक पर्ची उन्हें देते थे और वह सभी गाने एक एक करके सुनाते थे। एक गाने के दस या बीस पैसे लगते थे। हम तीन या चार दोस्त होते थे जो चाय पीने जाते थे और गाने सुना करते थे। पुरानी यादें कभी कभी गुदगुदी पैदा करती हैं। आपने मेरे ट्रांज़िस्टर के बारे में लिखा है, जब मैंने वह खरीदा था तो उन दिनों मेरी सबसे बड़ी व प्रमुख संपत्ति वह था। उसकी खुसी बहुत दिनों तक रही थी।
मान्यवर, जब मेरे कान सही थे तब बिनाका गीतमाला मेरा भी पसंदीदा प्रोग्राम हुआ करता था।
पढ़कर प्रसन्नता हुई कि आपको बिनाका गीतमाला पसंद थी। इस कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्त्ता श्री अमीन सयानी बहुत ही रोचक एवं प्रभावशाली रूप से इसे प्रस्तुत करते थे। आर्य समाज का रंग जमने के बाद फ़िल्मी गीतों का असर कम हो गया। फिर भी यदा कदा कुछ गीत जो मैंने अपने कंप्यूटर में रखे हुवे हैं, सुन लेता हूँ। एक समय में “दो कलियाँ” मेरी प्रिय फिल्म थी.जिसे मैंने सात बार देखा था। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपकी श्रवण शक्ति लौटा दें। श्री गुरमेल सिंह जी के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना है कि वह भी पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त कर सामान्य जीवन व्यतीत करें। आभार महोदय।
बहुत खूब भाई साहब ! घर वालों से दूर रहकर पढ़ना एक अलग अनुभव होता है। इसमें विद्यार्थी का जीवन बन अभी सकता है और बिगड़ भी। यह उनके अपने ऊपर निर्भर है।
विजय भाई , आप ने सही कहा कहा ,यह एक अजीब ही अनुभव था . हम सभी बिगुड़े तो नहीं लेकिन कुछ बन भी नहीं पाए किओंकि हमारे हालात ही कुछ बदल से गए थे ,जीवन किसी और ही तरफ चले गिया .