आत्मकथा

आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 26)

कुलवन्त से मुलाकात

अपने परम मित्र श्री कुलवन्त सिंह गुरु के बारे में मैं अपनी आत्मकथा के पहले भाग में विस्तार से लिख चुका हूँ। एच.ए.एल. में नौकरी लग जाने के बाद कुलवन्त से मेरा सम्पर्क कम हो गया था और बैंक में आ जाने के बाद तो एकदम ही टूट गया। मेरे पास उसके बारे में अन्तिम समाचार यह था कि वह जनरल इंश्यौरेंस कम्पनी में अमृतसर में काम कर रहा था। जब मैं पंचकूला आ गया, तो मैंने सोचा कि हो सकता है अब वह ऊँची पोस्ट पर पहुँच गया हो और चंडीगढ़ में हो। उस समय वहाँ एक टेलीफोन डायरेक्टरी रखी थी। चंडीगढ़ और पंचकूला की टेलीफोन डायरेक्टरी एक ही होती है। मैंने उसमें तलाश की तो कुलवन्त सिंह गुरु के नाम की एक प्रविष्टि मिली। मुझे पता नहीं था कि यह उसी की है। फिर भी मैंने कोशिश करने का निश्चय किया।

मैंने श्री विजय सिंह से उसके नम्बर पर फोन कराया और पुछवाया कि क्या कुलवन्त सिंह आगरा में पढ़े हैं। फोन उसकी पत्नी ने उठाया, जब यह सवाल पूछा गया तो वे बोलीं- ‘हाँ, पर आप क्यों पूछ रहे हैं?’ तब श्री विजय सिंह ने बताया कि ‘विजय कुमार सिंघल’ पूछ रहे हैं। तब उन्होेंने कहा कि मैं उनको जानती हूँ। यह जानकर मुझे कितनी प्रसन्नता हुई, इसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता। भाभीजी ने हमें घर आने का निमंत्रण दिया और घर का रास्ता भी समझाया।

अगले ही रविवार को हम बैंक की कार से चंडीगढ़ सेक्टर 49 में पहुँच गये और थोड़ा खोजने के बाद कुलवन्त के घर पर आ गये। कुलवन्त वहीं था। पूरे 20 साल बाद मुझसे मिलकर वह भी बहुत प्रसन्न हुआ। वहीं मुझे पता चला कि वह भारतीय विधि सेवा में यूपीएससी की परीक्षा के माध्यम से चुना जा चुका था। पूरे भारत में उसका तीसरा नम्बर था। उस समय वह सहायक लेबर कमिश्नर जैसे जिम्मेदारी के पद पर था और चंडीगढ़, पंजाब तथा हिमाचल प्रदेश उसके अन्तर्गत आते थे। उसके दो बच्चे हैं- एक पुत्री और एक पुत्र। दोनों पढ़ने में अच्छे हैं। उसकी श्रीमती जी भी काफी पढ़ी हैं और राजस्थान के एक विद्यालय में अध्यापिका हैं। लेकिन उन्होंने पारिवारिक कारणों से लम्बी छुट्टी ली हुई है और शायद अब कभी वहाँ वापस नहीं जायेंगी।

मेरे और मेरे परिवार के बारे में जानकर कुलवन्त को प्रसन्नता हुई, लेकिन यह जानकर वह नाराज हुआ कि मैं अभी तक केवल वरिष्ठ प्रबंधक के पद तक ही पहुँचा हूँ। उसने जोर देकर कहा कि अब प्रोमोशन का एक भी मौका छोड़ना नहीं है। मैंने इसे स्वीकार किया। कुछ घंटे उनके साथ बिताने के बाद मैं लौट आया और वायदा किया कि अगली बार परिवार के साथ आऊँगा।

दीपांक का प्रवेश

अब मुझे चिन्ता थी अपने परिवार के लिए मकान खोजने की और बच्चों का एडमीशन कराने की। दीपांक हाईस्कूल की परीक्षा दे रहा था और उसका प्रवेश कक्षा 11, जिसे चंडीगढ़ में प्लस-1 कहा जाता है, में कराना था। गुलशन जी का पुत्र उस समय कक्षा 11 में ही चंडीगढ़ के एक विद्यालय मोती राम आर्य हायरसेकंडरी स्कूल में पढ़ रहा था। वहाँ पढ़ाई तो मामूली ही होती थी, लेकिन चंडीगढ़ में होने के कारण इंजीनियरिंग आदि प्रवेश प्रतियोगिताओं में लाभ मिलता था। फीस भी कम थी और बाहर कोचिंग में पढ़ना ही था। इसलिए गुलशन जी के सुझाव पर मैंने दीपांक का प्रवेश उसी विद्यालय में कराने का निश्चय किया। एक दिन गुलशन जी के साथ जाकर मैं वहाँ की प्रधानाचार्या से मिल आया और प्रवेश के लिए अनुमति ले ली। आवश्यक फार्म आदि भी भरकर जमा कर दिये।

दीपांक का कोचिंग में भी उसका प्रवेश कराना था। इसलिए यह उचित समझा गया कि हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा समाप्त होते ही वह पंचकूला आ जाएगा। कोचिंग भी हमने वही पसन्द की जहाँ गुलशन जी का पुत्र मानस पढ़ रहा था। वह पास में ही पंचकूला के सेक्टर 15 में थी, जिसका नाम था कम्प्यूटर जोन।

जब मार्च के अन्त तक दीपांक के पेपर हो गये, तो श्रीमती जी ने खबर भेजी कि मैं भी पंचकूला आना चाहती हूँ। बच्चों का प्रवेश भी करा लूँगी और मकान भी देख लूँगी। पहले तो मैंने सोचा कि ठीक रहेगा, लेकिन गौड़ साहब ने कहा कि परिवार के साथ संस्थान में नहीं रह सकते। इसलिए मैंने उनसे आने के लिए मना कर दिया, हालांकि गुलशन जी कह रहे थे कि हमारे यहाँ रह सकते हैं। तब श्री विजय सिंह ने जोर देकर कहा कि बुला ही लो, हमारे यहाँ काफी जगह है। इसलिए मैंने उनसे आने के लिए कह दिया। निर्धारित समय पर वे अम्बाला स्टेशन पर उतरे और मैं उन्हें अपने साथ पंचकूला ले आया। श्री विजय सिंह की पत्नी श्रीमती अल्का सिंह बहुत मिलनसार हैं। उन्होंने हमारा बहुत ध्यान रखा। वहाँ हमें कोई कष्ट नहीं था।

मोना का प्रवेश

मैंने मोना का प्रवेश एक सरकारी विद्यालय में कराने की सोची थी, जो सेक्टर 15 में था। परन्तु श्रीमती जी को वह विद्यालय पसन्द नहीं आया। इसलिए कुछ मित्रों की सलाह पर सेक्टर 15 में ही न्यू इंडिया हायर सेंकडरी गल्र्स स्कूल में उसका प्रवेश कराने का निश्चय किया। वहाँ की प्रधानाचार्या ने प्रवेश से पहले उसका छोटा सा लिखित टैस्ट लिया और उसमें अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने पर सहर्ष प्रवेश देने को तैयार हो गयीं। हमने उनसे कहा कि हम जून के प्रथम सप्ताह में ही आ पायेंगे, क्योंकि उसकी परीक्षा अप्रेल में समाप्त होंगी और परिणाम मई में आयेगा। वे मान गयीं और हमने फीस जमा कर दी।

दीपांक के प्रवेश की औपचारिकता भी तभी पूरी हो गयी और कोचिंग में भी उसको प्रवेश मिल गया। कोचिंग की फीस बहुत थी, परन्तु आवश्यक होने के कारण मैंने जमा कर दी।

दोनों बच्चों के प्रवेश की समस्या हल हो जाने पर हमें बहुत सन्तोष हुआ। अब चिन्ता केवल मकान देखने की थी। हमने एक-दो मकान देखे भी पर हमें पसन्द नहीं आये। इसलिए यह विचार बना कि अभी दीपांक मेरे साथ ही रहेगा और मोना तथा श्रीमती जी कानपुर लौट जायेंगी। गौड़ साहब ने मुझसे कहा कि दीपांक को साथ लेकर हमारे पास रहो। वे उस समय अकेले ही थे, क्योंकि उनका परिवार लखनऊ में रहता था। इसलिए श्रीमती जी के जाने के बाद ही मैं उनके फ्लैट में चला गया और दीपांक भी अपनी कक्षाओं में जाने लगा। नाश्ता मैं सबका बना लेता था और दोपहर तथा रात के खाने के टिफिन लगा रखे थे। इसलिए कोई कष्ट नहीं था।

मकान देखना

यों तो हम गौड़ साहब के घर में आनन्द से रह रहे थे, लेकिन मकान की समस्या हल करनी ही थी। हम लगातार मकान देख रहे थे। मैं ऐसा मकान चाहता था, जो संस्थान के निकट हो और किराया भी उचित हो। सौभाग्य से हमें सेक्टर 12-ए, पंचकूला में एक मकान मिल गया। उसका किराया बताया गया 5000, जो उस समय के हिसाब से काफी अधिक था, मैं 4500 से अधिक देना नहीं चाहता था। कुछ बातचीत के बाद वे 4700 में मकान देने को तैयार हो गये। बैंक इनमें से केवल 3600 रुपये देता, शेष मुझे भरना था। परन्तु मकान अच्छा था और पूरी तरह स्वतंत्र था, इसलिए मुझे और दीपांक को पसन्द आ गया। सबसे बड़ी बात यह थी कि यह मकान मेरे संस्थान से ठीक एक किलोमीटर दूर था, इसलिए मेरे लिए पैदल आने-जाने की भी सुविधा थी। मकान के मालिक एन.आर.आई. थे और कनाडा के नागरिक थे और साल में 6 माह वहीं रहते थे। मकान में एक कमरा उन्होंने अपने लिए अलग कर रखा था। जब भारत आते थे, तो उसी में रहते थे। मकान की सुरक्षा व्यवस्था भी ठीक थी। मकान मालिक की अनुपस्थिति में मकान की देखभाल उनके एक पड़ोसी श्री पंकज सैनी किया करते थे। उन्होंने ही मकान हमको किराये पर उठाया था।

मोना के साथ श्रीमती जी कानपुर लौट गयी थीं। दीपांक की कोचिंग प्रारम्भ हो गयी थी, इसलिए दीपांक और मैं अपने नये मकान में रहने लगे। हमारे पास अपने आवश्यक कपड़े तो थे ही, कुछ चादर भी थे। पंखे और ट्यूब लाइट वहाँ लगे हुए थे। श्री पंकज सैनी की कृपा से हमें एक तख्त और एक फोल्डिंग पलंग भी मिल गया। इस प्रकार हम दोनों आराम से वहाँ रहने लगे। खाने के लिए हमने टिफिन लगा रखा था। दीपांक के पास कोई साधन नहीं था, इसलिए प्रारम्भ में वह पैदल ही कोचिंग जाता था, जो वहाँ से लगभग डेढ़ किमी दूर थी। उसका विद्यालय अभी खुला नहीं था, इसलिए उसकी चिन्ता नहीं थी।

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

4 thoughts on “आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 26)

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त पढ़ी। आपका एक मित्र २० वर्ष बाद मिला, यह अत्यंत सुखद स्मृति कही जा सकती है। मेरे साथ भी ऐसी कुछ घटनाएँ घाटी है जिसमे लगभग ४० वर्ष बाद हम अपने सहपाठियों के संपर्क में आये। यह दोनों व्यक्ति ही स्टेट बैंक में उच्च पदस्थ थे। दोनों को ही प्रसन्नता हुई। जीवन में ऐसे अवसर बहुत कम मिलते हैं। बच्चो के स्कूलों में प्रवेश व मकान ढूंढने की जानकारी भी रुचिकर है। आज की क़िस्त के लिए धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मान्यवर !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    आज की किश्त भी अच्छी लगी .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद भाई साहब !

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