अनकही सच्चाई
हर तरफ सियासत ही सियासत दिखी |
क्यूं चाहकर भी सच्चाई की कीमत पड़ गई फीकी |
हो गए शामिल खुद भी कुछ बातों में अनजाने से |
क्यूं चाहकर भी ना कोई रिहाई इधर दिखी |
खाव्व तो सबके होते हैं सबके सुनहरे से |
क्यूं खाव्वों की भरपाई इतनी मंहगी दिखी |
असलियत का मौल आंका जाता बहुत कम अब तो |
क्यूं मुनाफागिरी और बनावट को इतनी अहमीयत मिली |||
कामनी गुप्ता ***