धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डाल कर संस्कारित करें : डा. सोमदेव शास्त्री

ओ३म्

देहरादून स्थित श्रीमद्दयानन्द ज्योतिर्मठ आर्ष गुरुकुल, पौंधा के सोलहवें वार्षिकोत्सव के अवसर अन्य अनेक आयोजनों सहित एक ‘‘संस्कार सम्मेलन” का भी आयोजन किया जिसके अनेक विद्वान वक्ताओं में प्रथम वक्ता थे आर्य जगत के वेदों के प्रसिद्ध विद्वान डा. सोमदेव शास्त्री, मुम्बई। अपने  सम्बोधन में उन्होंने कहा कि आयुर्वेद के अनुसार किसी पदार्थ के अवगुणों को निकाल कर उसमें गुणों को डालना संस्कार कहलाता है। डा. सोमदेव शास्त्री ने ऐसी आयुर्वेदीय ओषधियों की चर्चा की जो विष से युक्त होती है, अतः उनका सेवन करने से स्वास्थ्य व जीवन को हानि होती है। आयुर्वेद के अनुसार इन विषयुक्त ओषधियों का शोधन कर इनको स्वास्थ्य के लिए उपयोगी बनाना व इनके सेवन से रोगों का निवारण करना इनका संस्कार करना है। उन्होंने कहा कि बच्चों में उनके पूर्वजन्म के बुरे संस्कारों को हटा कर उनमें नये अच्छे शुभ संस्कार डालना बच्चों को संस्कारित करना है। डा. सोमदेव शास्त्री ने एक झूठ बोलने वाले व्यक्ति का उदाहरण दिया और कहा कि पहली बार झूठ बोलने पर व्यक्ति डरता है। परन्तु बार-बार झूठ बोलने का अभ्यास करने वाले व्यक्ति का डर दूर हो जाता है। ऐसा बुरे संस्कारों के पड़ने के कारण होता है। मनुष्य की मृत्यु होने पर सूक्ष्म शरीर के साथ सभी शुभ व अशुभ संस्कार भी जाते हैं, इसका उल्लेख कर विद्वान वक्ता ने इस पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि माता पिता को चाहिये कि वह अपनी सन्तानों में अच्छी आदतें विकसित करें और बुरी आदतों को हटाने का हर सम्भव प्रयत्न करें। डा. सोमदेव जी ने अर्थ शुचिता की चर्चा की और इसके अनेक उदाहरण दिये। खेती की आय को उन्होंने श्रेष्ठ बताया और कहा कि ऐसा किसान के परिश्रम के कारण होता है। पाप का अंश खेती की आय में नहीं होता।

डा. सोमदेव शास्त्री ने माताओं को अपनी सन्तानों को सुशीलता का उपदेश करने की प्रेरणा की। घर में सबको यह नियम करना चाहिये कि सामूहिक सन्ध्या व हवन करके ही नाश्ता या भोजन करना चाहिये। उन्होंने अपने पुत्र का उदाहरण दिया और बताया कि वह नौकरी लगने पर अलग रहने लगा। एक दिन प्रातः भ्रमण करते हुए डा. सोमदेव जी उसके घर गये तो पुत्रवधु ने बताया कि पतिदेव यज्ञ की तैयारी कर रहे हैं। यह सुनकर उन्हें प्रसन्नता हुई कि वह माता-पिता के डाले गये संस्कारों के अनुसार परम्परा का पालन कर राह है। वह प्रसन्न चित्त उसके घर से लौट आये। शास्त्री जी ने कहा कि वैदिक धर्म को अपने परिवार का धर्म बनाओं। उन्होंने कहा कि यदि बच्चों को जन्म से ही संस्कार देंगे तो परिवार के सभी सदस्य वैदिक धर्म के संस्कार वाले बनेंगे। विद्वान आचार्य ने बताया कि बच्चों को संस्कारित करने के लिए परिवार के बड़े लोगों को बच्चों के साथ बैठकर बातें करनी चाहियें। यदि पुत्र व पुत्र वधुओं के साथ 10 से 15 मिनट का समय भी बितायेंगे–सन्ध्या व हवन साथ-साथ करेंगें तो जीवन पुण्यमय बनेगा। उन्होंने उम्मीद जताई कि परिवार के सभी लोग यदि नियमित एक साथ सन्ध्या व हवन करेंगे तो उनका यह प्रवचन करना सफल होगा।

डा. सोमदेव शास्त्री के प्रवचन पर टिप्पणी करते हुए गुरुकुल पौन्धा के संस्थापक स्वामी प्रणवानन्द जी ने बताया कि शास्त्री जी ने अपने गांव ननोरा मध्य प्रदेश में 16 से 20 मई, 2015 तक बहुत बड़ा वैदिक धर्म प्रचार का आयोजन किया। शास्त्री जी सन् 1992 से प्रत्येक वर्ष एक वेद का पारायण यज्ञ करते हैं। आर्य जगत के शीर्ष वैदिक विद्वानों को वेद पारायण यज्ञ के कार्यक्रमों में आमंत्रित किया जाता है। इस वर्ष वेद पारायण यज्ञ की रजत जयन्ती थी। वहां आर्य जगत के 62 विद्वान पहुंचे। 4 दिन तक, प्रातः 5 से 6.30 बजे तक योगाभ्यास, 6-30 बजे से 7-00 बजे तक विश्राम, 7-00 बजे से 9-00 बजे तक यज्ञ, फिर जलपान और इसके बाद पण्डाल में सम्मेलन होता था। रात्रि 11-00 बजे तक कार्यक्रम चलता था। गांव ननोरा तथा पास के गांवों के सभी लोग परिवार सहित आयोजन में आते थे। गुरूकुल पौंधा की तुलना में ननोरा में वहां चार गुणा अधिक लोग ने भाग लिया। डा. सोमदेव शास्त्री और आर्य समाज का प्रभाव अपने पूरे गांव पर है। उनके पूरे गांव ने तन-मन-धन से अतिथियों की सेवा-शुश्रुषा की। उन्होंने बताया कि गांव ननोरा में कोई बीड़ी पीने वाला दिखाई नहीं दिया। हुक्का पीने वाला भी दिखाई नहीं दिया। उस गांव में शराब कोई नहीं पीता। इससे प्रेरणा ग्रहण कर स्वामीजी ने अपने-अपने परिवारों को सुधारने की अपील भी की। स्वामी प्रणवानन्द जी ने कहा कि डा. सोमदेव जी का पुत्र प्रणव समर्थ है, उसकी नौकरी लग गई है और वह विवाहित है। अपने बेटे प्रणव को उन्होंने अपना दायित्व सौंप दिया है। स्वामी जी ने सम्मेलन में बड़ी संख्या में स्थानीय व देश भर से पधारे लोगों का आह्वान कर कहा कि तुम सब के घरों में यज्ञ की यह अग्नि बुझने न पाये। अपने बच्चों के अन्दर संस्कारों के आधान करने की आपने मार्मिक अपील की।

संस्कार सम्मेलन में द्रोणस्थली कन्या गुरूकुल, देहरादून की आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी का प्रवचन भी हुआ। उन्होंने कहा कि संस्कारों का जीवन में बहुत महत्व है। मां के गर्भ में ही सन्तानों में संस्कारों का पड़ना आरम्भ हो जाता है। सन्तानें अपने माता-पिता-आचार्य व वातावरण से संस्कार ग्रहण करती हैं। आपने महर्षि दयानन्द सरस्वती की संस्कारों की पुस्तक संस्कारविधि का उल्लेख कर 16 संस्कारों की चर्चा की और उन पर प्रकाश डाला। विदुषी वक्ता ने कहा कि मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ प्राणी है। मनुष्य जो-जो कर्म करता है वह शुभ व अशुभ होते हैं। उन्होंने आगे कहा कि वाणी का शुभ कर्म सत्य बोलना है तथा असत्य बोलना अशुभ कर्म है। इसी प्रकार से हितकारी बोलना भी शुभ कर्म है।

संस्कार सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री जी ने कहा कि गीता, ब्रह्मसूत्र तथा उपनिषदों के भाष्य मध्यकालीन विद्वानों ने किये। इन पर भी टीकायें और ग्रन्थ लिखे गये हैं। इन्हें प्रस्थानत्रयी कहते हैं। स्वामी दयानन्द जी के 3 ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, संस्कारविधि तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका यह हमारे आर्यसमाज के लोगों के लिए प्रस्थानत्रयी हैं। आपने संस्कृत, संस्कृति व संस्कार की विस्तार से चर्चा की और कहा कि इन तीनों में बहुत कम अन्तर है। यह प्रायः सभी शब्द समानार्थक हैं। उन्होंने कहा कि जैसा ईश्वर में अनन्त आनन्द है वैसा हि संस्कृत में भी अनन्त आनन्द है। संस्कृत और संस्कृति शब्दों का सबसे पहले प्रयोग वेदों में हुआ है। स्वामी दयानन्द जी ने सैकड़ों वर्षों की परम्पराओं को समेट कर व उनका सुधार एवं संशोधन कर 16 संस्कारों को हमारे सामने रखा। आपने कहा कि पहले 48 तक संस्कारों को करने का विधान मिलता है। स्वामीजी ने अपनी ऊहा से सबका समावेश 16 संस्कारों में करके समाज व देश का हित किया है। आज सर्वत्र 16 संस्कारों का ही प्रचलन है व इसी का प्रयोग किया जाता है। यह स्वामी दयानन्द जी की संस्कारों के क्षेत्र में बहुत बड़ी सफलता है। विद्वान वक्ता ने स्वामीजी के संस्कारों के सुधार व निर्माण में किए गए प्रयासों की विस्तार से चर्चा की और कहा कि संस्कार विधि को सबको पढ़ना चाहिये और अपने बच्चों के सभी संस्कार आर्य समाज के पुरोहित से करवाने चाहियें।

संसार में वैदिक संस्कृति ही एक मात्र ऐसी संस्कृति है जिसमें गर्भाधान से ही संस्कारों का आरम्भ हो जाता। अन्त्येष्टि पर्यन्त कुल 16 संस्कारों का विधान है। इससे श्रेष्ठ मानव व श्रेष्ठ समाज का निर्माण होता है। सभी प्राचीन ऋषि-मुनि-योगी व आप्त पुरूष वैदिक संस्कृति व संस्कारों के कारण ही विश्व वन्दनीय बने जिनमें मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, आचार्य चाणक्य व महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के नाम लिये जा सकते हैं। संस्कार सम्मेलन को आर्य विद्वान स्वामी धर्मेश्वरानन्द सरस्वती, पं. वेदप्रकाश श्रोत्रिए आदि ने भी सम्बोधित किया और संस्कारों के महत्व पर ओजस्वी विचार प्रस्तुत किये। सम्मेलन पूर्ण सफलता के साथ सम्पन्न हुआ।

एक महत्वपूर्ण समाचारब्रह्माण्ड में दूसरी धरती मिली”

कल दिनांक 24 जुलाई, 2015 को विभिन्न एजेंसियों के हवाले से वांशिगटन से समाचार दिया गया है कि नासा के केपलर अंतरिक्ष दूरबीन ने सौर मंडल से बाहर हमारी पृथिवी के समान एक नया गृह खोजा है। समाचारों में कहा गया है कि यह नया ग्रह हमारी धरती जैसा है। अपने सितारे का चक्कर काट रहा नया ग्रह जीवन की सभी परिस्थितियों व संभावनाओं को समेटे हुए है। अभी यह पता नहीं है कि वहां एलियन रह रहे हैं या नहीं। हालांकि वैज्ञानिकों का मानना है कि वहां का वातावरण ऐसा है कि वहां पेड़-पौधे पनप सकते हैं। नासा ने इस ग्रह को केपलर-452बी नाम दिया है। यह ग्रह जी2 नाम के सितारे की परिक्रमा कर रहा है। जी2 तारा हमारे सूर्य जैसा तारा है। नासा ने कहा है कि नई दुनिया में धरती के जैसी जीने की पर्याप्त परिस्थितियां मौजूद हैं। नया ग्रह हमारी धरती से आकार में 60 प्रतिशत बड़ा है। और हमसे करीब 1400 प्रकाश वर्ष दूर साग्नस तारामंडल” में स्थित है। समाचार के अनुसार नए ग्रह की खोज के साथ ही पुष्ट ग्रहों की संख्या 1030 हो गई है। नासा ने अभी तक 12 निवास योग्य ग्रहों की खोज की है। और दूसरी धरती की खोज इस दिशा में एक मील का पत्थर है। नासा के साइंस मिशन डाइरेक्टरेट के सहायक प्रशासक जान ग्रुसफेल्ड ने कहा कि इस उत्साहवर्द्धक परिणाम ने हमें ‘‘अर्थ 2.0’’ की खोज के करीब पहुंचा दिया है।

इन पंक्तियों के लेखक ने यह समाचार इसलिये दिया है कि महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर आज से 30 वर्ष पूर्व हमने सूर्य, चन्द्र व अन्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि पर लिखते हुए एक लेख में कहा था कि हमारे सौर मण्डल के किसी ग्रह व उपग्रह पर मानवीय सृष्टि का होना सम्भव नहीं है परन्तु ब्रह्माण्ड के अन्य सौर मण्डलों में प्रत्येक सूर्य के पृथिवी सदृश एक ग्रह पर मानव सृष्टि होना प्रायः निश्चित है। यह विचार हमने वेद व महर्षि दयानन्द के वैदिक साहित्य के अध्ययन के आधार पर लिखे थे। महर्षि दयानन्द ने सन् 1874 में सत्यार्थप्रकाश में अपना मत व्यक्त किया था कि पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य-इनका वसु नाम इसलिये है कि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजा वसती हैं और ये ही सब को वसाते हैं। उन्होंने लिखा था कि जब नक्षत्रों अर्थात् सृष्टि के अन्य सूर्यों का नाम वसु” है तो उनमें पृथिवी की तरह इसी प्रकार की प्रजा के होने में क्या सन्देह है? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुष्यादि सृष्टि से भरा हुआ है, तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्यादि सृष्टि न हो तो इन नक्षत्रों वा लोक-लोकान्तरों को ईश्वर द्वारा बनाना सफल कभी हो सकता है? इसलिये सर्वत्र मनुष्यादि सृष्टि है। विज्ञान की यह नई खोज महर्षि दयानन्द की घोषणा के अनुरूप होने के कारण हमने इसे प्रस्तुत किया है। यह महर्षि दयानन्द के ऋषि होने का प्रमाण है। हम आशा करते है ‘‘अर्थ 2.0’’ के बारे में और नई जानकारियां शीघ्र सामने आयेंगी। हम नासा के सभी वैज्ञानिकों की इस उपलब्धि के लिए अपनी हार्दिक बधाई देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

 

4 thoughts on “अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डाल कर संस्कारित करें : डा. सोमदेव शास्त्री

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन जी , लेख अच्छा लगा और साथ ही हमारी धरती की बहन मिल जाने के लिए आप को वधाई हो. अगर ऐसी ही धरती पर लोगों का आना जाना शुरू हो जाये तो इस धरती पर बड रही आबादी की कोई चिंता नहीं रहेगी किओंकि लोग नई धरती पर जाने के लिए उत्सुक होंगे .

    • Man Mohan Kumar Arya

      धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी. आपकी बधाई स्वीकार है। आपका धन्यवाद। आपकी सद्भावना प्रशंसनीय है। अर्थ २ १४०० प्रकाश वर्ष दूर है अतः वहां जाना संभव होगा, लगता नहीं है। वहां तो ईश्वर से प्रार्थना कर अगले जन्म में ही जा सकते हैं। हो सकता है कि वहां जनसँख्या कम हो और हालात यहाँ से अच्छे हों परन्तु उल्टा भी सकता है। वैज्ञानिकों ने तो अभी दूसरी पृथ्वी का अधूरा ज्ञान प्राप्त किया है जबकि हमारे जैसी अनंत पृथिवीआं इस ब्रम्हांड में संभव हैं। इसलिए एक गीतकार ने लिखा है किः “तेरा (ईश्वर) पार किसी ने भी पाया नहीं। दृष्टि किसी की तू आया नहीं।” यह मेरा पसंदीदा भजन है। हार्दिक धन्यवाद।

      • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

        हा हा मनमोहन जी यह सब कुछ तो विगिआनिओ पर ही छोड़ देते हैं .इस ब्रह्मंड का भेद पाना तो विगिआनिओ के लिए भी टेड़ी खीर है ,खैर मेरे मन में एक प्रश्न है कि हवन का जीकर बहुत दफा हुआ है . यह हवन होता किया है और कैसे किया जाता है कृपा बताने के चेष्टा करें ,धन्यवादी हूँगा .

        • मनमोहन कुमार आर्य

          नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। हवन एक अनुष्ठान या क्रिया है जिसमें एक हवनकुण्ड होता है जिसका आकार आवश्यकतानुसार बना सकते हैं। यह ऊपर से लगभग वर्गाकार डेढ़ फीट गुणा डेढ़ फीट चैड़ा होता है वा लगभग एक फुट गहरा होता है। इसे एक अंगेठी कह सकते हैं। इसमें बहुत ही साफ सुथरी आम, पीपल, पलाश आदि की समधिाओं (सूखी लकडि़यों के हवनकुण्ड के आकार के छोटे छोटे टुकड़े) कर उसमें रखकर अग्नि जलाते हैं। अग्नि जलाने के बाद विधि पूर्वक कुछ क्रियायें करते हैं जिसमें वेद मन्त्रों का उच्चारण कर प्रार्थनायें की जाती हैं और साथ साथ मन्त्र की समाप्ति पर गोघृत व हवन सामग्री-साकल्य की आहुतियां दी जाती हैं। हवन सामग्री में गोघृत के अतिरिक्त, वन-ओषधियां-वनस्पतियां, सुगन्धित व पुष्टिकारक पदार्थ व मिष्ट पदार्थ होते हैं। वेद मन्त्र बोलकर और अन्त में ‘‘स्वाहा” कहकर अग्नि पर घृत व सामग्री की पृथक पृथक आहुतियां – हवियां डाली जाती हैं। अग्नि जलाने से घर की वायु गर्म होकर हल्की हो जाती है और ऊपर रोशनदानों व खिड़कियों से बाहर चली जाती है और बाहर की शुद्ध वायु घर में प्रवेश करती है जो घरवालों के स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद होती है। अग्नि में जो पदार्थ या हवनसामग्री डाली जाती है, वह अग्नि में जलने से अत्यन्त सूक्ष्म होकर वायुमण्डल में फैल जाती है और श्वांस द्वारा हमारे शरीर में भी प्रवेश करती है। जिस प्रकार अग्नि में एक मिर्च डालने से उसका प्रभाव इतना बढ़ जाता है कि वहां सैकड़ों लोगों का बैठना सम्भव नहीं होता उसी प्रकार से अग्नि में जो पदार्थ डाले जाते हैं, उनका प्रभाव भी बहुत अधिक बढ़ जाता है। उससे न केवल हवन करने वाले को लाभ होता है अपितु पड़ोसियों और जहां जहां वह वायु जाता है, उससे सभी प्राणियों को लाभ होता है। यह कहा व माना जाता है कि परोपकार की भावना से किये यज्ञ व हवन से यज्ञकर्त्ता को स्वास्थ्य लाभ सहित जीवन में अनेकानेक लाभ होते हैं। वेदों को युक्ति, तर्क व शास्त्रीय प्रमाणों तथा विद्वान पूर्वजों के वचनों द्वारा ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध किया गया है। ईश्वर ने वेदों में यज्ञ करने की आज्ञा दी है। यज्ञ करना प्रत्येक मनुष्य का धर्म व कर्तव्य है। इसका कारण यह बताया जाता है कि हमारे श्वांसों व शरीर के अन्य निमित्तों से प्राण-वायु का जो बिगाड़ होता है, उतना व उससे अधिक वायु को शुद्ध करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। वायु शुद्धि व उसकी गुणवत्ता में वृद्धि का यज्ञ के अतिरिक्त अन्य कोई सरल व सुलभ तरीका नहीं है। ऐसा माना जाता है कि यज्ञ से सभी कामनायें, प्राथर्नायें व इच्छायें पूर्ण होती हैं जिसे ईश्वर पूरी करता हैं क्योंकि यज्ञ में मनुष्य उसकी आज्ञा का पालन करता है। मैं भी इस बात में विश्वास रखता हूं क्योंकि मेरे जीवन में भी कुछ घटनायें घटी हैं जिसका श्रेय मैं यज्ञ को ही देता हूं। एक बार मेरा बहुत भंयकर एक्सीडेंट हुआ था। मुझे खरोंच तक नहीं आई थी। मित्रों ने कहा था कि यह एक करिश्मा था। कईयों ने मेरे यज्ञ करने को मेरी जान बचने का कारण बताया था। यज्ञ करने से किसी को कोई हानि नहीं होती। गोघृत जलने से वायु में सुगन्ध उत्पन्न होती है। सभी को यह अच्छी लगती है। श्री कृष्ण जी ने गीता में कहा है कि यज्ञ से बादल बनते हैं, बादल से वर्षा, वर्षा से अन्न, अन्न से शरीर में बहुमूल्य वीर्य व उससे मनुष्य सन्तान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से यह चक्र चलता है। यज्ञ या हवन प्रातः सूर्योदय व उसके बाद तथा सायं सूर्यास्त तक करने का विधान है। हमारे आदरणीय व प्रिय श्री विजय सिंघल भी यज्ञ में विश्वास रखते हैं। ऐसा उन्होंने लिखा है। वेदों के आधार पर महर्षि दयानन्द जी ने संस्कार विधि पुस्तक लिखी है। इसमें गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त 16 संस्कारों का विधान किया है। इससे सन्तान श्रेष्ठ गुण व आचरण वाली बनती है, ऐसा इस पुस्तक की भूमिका में युक्ति, तर्क व प्रमाणपूर्वक कहा गया है। मैं कभी इस भूमिका की बातों को ही एक लेख के रूप में प्रस्तुत करूगां। यह विचार मैंने तत्काल आपके शब्दों को पढ़कर लिखे हैं। अनेक विद्वानों ने इस पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं। अनेक शोध भी हुए हैं। सभी के परिणाम सकारात्मक आये हैं। हवन से जुड़े सभी मुद्दों पर शीघ्र एक विस्तृत लेख लिखूंगा। फिलहाल इतना ही। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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