संस्कृति
बयार वह रही है हम साथ-साथ बह रहे हैं
एक दूसरे के स्नेह को मजाक समझ रहे हैं
आये दिन सभी लोग सद्विचार छोड़ रहे हैं
कुविचारों को अपने चित में जगह देरहे हैं
भारतीय संस्कृति से हम सब दूर जा रहे हैं
स्नेह के जगह पर ईर्ष्यालु बनते जा रहे हैं
द्वेषपूर्ण भावनाओं को मन में पाल रहे हैं
आज अपने अन्दर लोग धारणा बना रहे हैं
@रमेश कुमार सिंह /२८-०६-२०१५
यह तुकबंदी कुछ समझ में नहीं आयी कि आप क्या कहना चाहते हैं?
समाजिक बुराइयों के साथ साथ हम सब चल रहे हैं उसे मान भी रहे हैं चाहे मजबूर वश हो या जैसे भी हो इसी के साथ साथ हम सब अपनी संस्कृति को भी खो रहे हैं।शायद इसी भाव को लेकर मैं इस रचना को किये हैं।