मेरी कहानी – 48
जब टिकटें मिलनी शुरू हुई तो धकम धक्का शुरू हो गिया। टिकट वाली छोटी सी खिड़की से टिकट ले कर जब लोग बाहर निकलते तो कुछ लड़के आगे से आ जाते और घुस जाते। टिकट ले कर बाहर निकलना भी मुश्किल हो जाता। अपना सारा जोर लगा कर मैंने टिकट ले लिए और जैसे तैसे करके मैं बाहर भी निकल आया लेकिन मेरे सर के वाल बिखरे हुए, कैंची चपल के स्ट्रैप सोल से उखड़े हुए, मैं अजीब ही हालत में था। जब टिकट लेकर बाहर आया तो दोस्त मुझे देख कर हंस रहे थे। फिल्म तो हम ने देख ली लेकिन आज तक मैं यह सोच सोच कर हैरान हो जाता हूँ कि हम भारती ऐसा क्यों करते हैं ? कहीं भी जाओ, बस में चढ़ना हो, ट्रेन में चढ़ना हो हम दूसरे से पहले होना चाहते हैं।
यहाँ तक कि एक दफा हमने अमृतसर से इंग्लैण्ड के लिए जहाज़ में चढ़ना था। मेरे ससुर साहब हमें चढ़ाने आये थे। जब चैक इन का वक्त आया तो सभी एक दूसरे से आगे हो कर अपना सामान लाने लगे। यहां मैं यह भी बता दूँ कि अब ऐसा नहीं है क्योंकि बाहर रहने से हमारे लोग बहुत बदल गए हैं। यह समय १९७४ था और हम ने एअर अफगान में सफर करना था। चैक इन के वक्त ऐसा हो गिया था कि “मैं पीछे ना रह जाऊं “. लोग हम को ओवर टेक करके आगे जा रहे थे और अपना सामान चैक इन काउंटर पर रख रहे थे लेकिन हम दोनों मिआं बीवी और तीन बचे वहीँ के वहीँ खड़े थे। मेरे ससुर साहब दूर से खड़े हम पर गुस्सा हो रहे थे और इशारे कर रहे थे कि हम भी आगे जाएँ लेकिन मैंने भी उन को इशारा किया कि वोह फ़िक्र ना करें क्योंकि सभी की सीटें इसी जहाज़ में बुक थीं। चैक इन पर एक सिंह जी थे, वोह भी हमें देख रहे थे। अचानक गुस्से में आ कर उन्होंने कुछ लोगों का सामान उठाया और दूर फैंक दिया और मुझे कहा, “सरदार जी आप पहले आइये “.
दो मिनट में ही हमारा काम हो गिया और सिंह जी का धन्यवाद करके हम इमिग्रेशन की ओर चल दिए। जब क्लीअर हो कर सभी जहाज़ में बैठ गए तो मैंने आगे से पीछे तक देखा, जहाज़ भरा हुआ तो था लेकिन अभी भी काफी सीटें खाली थीं। मैं सोच रहा था कि क्यों इतनी पैनिक थी जब कि जहाज़ में अभी भी इतनी सीटें खाली थीं। अभी तक वोह सीन मुझे याद है और मैं सोचता रहता हूँ कि कहने को तो हम डींगें मारते रहते हैं कि हमारी सभयता बहुत ऊंची है लेकिन यह ऊंची सभयता की निशानीआं हैं ? हर शाम को हम एक टीवी चैनल देखते हैं जिस पर किसी टॉपिक को लेकर बातें होती हैं, पांच या छह मिनिस्टर बातें करते हैं लेकिन ऐसा बोलते हैं जैसे मुर्गों की लड़ाई हो रही हो, एक दूसरे को बात करने ही नहीं देते। बहुत दफा तो हम किसी नतीजे पर पौहंच ही नहीं सकते कि किया हुआ, बीजेपी कांग्रेस आम पार्टी और कुछ और जेडीयू के लोग होते हैं लेकिन सभी बोल रहे होते हैं, सिर्फ पतरकार ही मुझे सभ्य लगते हैं जो इंतज़ार करते रहते हैं।
खैर, यह तो चलता ही रहेगा, अब आता हूँ स्कूल की ओर। पढ़ाई खूब हो रही थी। एक दिन विद्या प्रकाश जी आते ही बोले, ” लड़को ! आप के लिए एक सूचना है, वोह यह है कि गाँव लख पर साहनी से फगवारे तक सड़क बनने वाली है। पक्की तो बहुत देर बाद बनेगी, फिलहाल एक सीधा कच्चा रास्ता ही बनाया जाएगा जिस पर तुम मट्टी डालोगे, फावड़े और टोकरे तुम को दिए जाएंगे। यह २१ दिन का कैम्प लगेगा और इस का नाम है भारत समाज सेवक कैम्प। और स्कूलों से भी लड़के आएंगे। जिस जिसने जाना है, मुझे नाम लिखा देना “. इस के बाद उन्होंने पढ़ाना शुरू कर दिया। जब छुटी हुई तो सभी लड़के आपस में बातें करने लगे और एक दूसरे से पूछने लगे कि किस किसने कैंप में जाना था। हमारे सेक्शन में सिर्फ मैं और जीत ही तैयार हुए । भजन का सेक्शन और था लेकिन उस ने जाने से इंकार कर दिया। कुछ अन्य क्लासों से लड़के तैयार हो गए लेकिन हमारे स्कूल से सिर्फ आठ लड़के ही जाने को तैयार हुए।
यहां मैं यह भी बता दूँ कि ऐसा ही कैंप कुछ साल पहले हमारे गाँव में भी लगा था जिस में कपूरथले के एक कालज से लड़के आये थे। तब हमारे गाँव से फगवारे को सड़क बनी थी. देश में पाँच वर्षीय योजनाएं चल रही थीं जिस के तहत गाँवों को शहरों से मिलाने का काम शुरू हो गिया था। यहां भी सड़क बननी होती वहां स्कूल के लड़कों का कैंप भी लगता था जिस को भारत समाज सेवक कैंप कहा जाता था । नीयत दिन सभी लड़के फगवारे बस अड्डे पर पौहंच गए। हम यह देख कर हैरान हो गए कि वहां दो बसें खड़ी थीं और दूसरे स्कूलों और रामगढ़िआ आर्ट्स कालज से भी बहुत लड़के आये हुए थे। दोनों बसें पूरी तरह भर गईं। आधे घंटे में हम लख पुर पौहंच गए। एक प्राइमरी स्कूल जो बंद कर दिया गिया था, उस में हमें ठहरना था लेकिन यह कमरा छोटा था, इसलिए बहुत से टैंट भी लगा दिए गए थे। मैं और जीत ने टैंट में रहना पसंद किया क्योंकि यह खुली हवा में था।
कैंप में आते ही हम सब घुल मिल गए। एक कमरे में हमें सारा राशन दे दिया गिया। सारे लड़कों का भोजन हमने ही बनाना था, सिर्फ एक आदमी जिसको रसोइया कहते थे हमें दे दिया गिया था। यह आदमी हमें सिर्फ इंस्ट्रक्शन ही देता था लेकिन बनाना हम ने ही था। हम सभी भूखे थे, उस वक्त तीन चार बज्जे होंगे। एक भट्टी पहले ही बनाई हुई थी। हम को कहा गिया कि एक वल्टोह में पानी भर कर लाया जाए। वल्टोह एक पीतल का बहुत बड़ा घड़े जैसा बर्तन होता था। मैं और जीत वल्टोह जो एक बड़े रस्से से एक बड़ी लकड़ी से बाँधा हुआ था, लकड़ी के एक सिरे को मैंने अपने कंधे पर रखा और दूसरे सिरे को जीत ने अपने कंधे पर रखा और वल्टोह ले कर कुएं की तरफ चल दिए जो नज़दीक ही था। कुएं से बलटोह को पानी से भर कर हम वापस आ गए और वल्टोह को भट्टी पर रख दिया, इस पानी से हमने चाय बनानी थी।
जीत एक ऐसा लड़का था जो हमेशा हर काम में आगे होता था। जीत ने वल्टोह में खंड और चाय पत्ती डाल दी। एक बाल्टी दूध की नज़दीक रखी हुई थी। जब पानी खूब उबल चुक्का तो जीत ने दूध की बाल्टी भी डाल दी। चाय तैयार हो चुक्की थी। स्टोर से हमें डबल रोटीआं लाने को कहा गिया। कैंप के सारे लड़के एक गोल दायरे में बैठ गए। हर एक को एक एक पीतल का ग्लास दिया गिया और दो दो छोटी छोटी डबल रोटीआं जिन को बंद कहते थे देनी शुरू हो गईं और साथ ही पीछे पीछे दो लड़के ग्लासों में चाय डालने लगे। ग्लासों में चाय डालते ही ग्लास बहुत गरम हो गए, इस लिए सभी ने ग्लास नीचे ज़मीन पर ही रख दिए। सभी ने डबल रोटीआं खाई और रज रज के चाय पी क्योंकि चाय बहुत बन गई थी। इस के बाद सभी ने अपने अपने ग्लास मट्टी से साफ़ किये। यहां मैं यह भी लिखना चाहूंगा कि उस समय सारे बर्तन पीतल से बने ही होते थे, स्टील का इस्तेमाल तो बहुत देर बाद शुरू हुआ, थालिआं कांसी की होती थीं, छोटे से लेकर बड़े बड़े बर्तन पीतल से बने ही होते थे। यह हमारा कैंप में पहला खाना था।
जब हम ने चाय पी ली तो हम को सब्जिआं और प्याज़ काटने को कहा गिया और साथ ही एक पीतल की प्रात जो बड़ी थाली जैसी होती थी, उस में गेंहूँ का आटा गूंधने को कहा गिया। एक टोकरे में आलू थे और दूसरे में बैंगन। सब्जीआं काटने के लिए बहुत से चाक़ू पहले ही रखे हुए थे। कुछ लड़के सब्जीआं और प्याज़ काटने लगे। मैं और जीत ने आटा गूँधना शुरू कर दिया। आटा गूंधते हुए हम हंस रहे थे। फिर रसोइये ने एक बड़ी कड़ाही में प्याज़ और घी डाल कर कड़ाही को भट्टी पर रख दिया और नीचे भट्टी में लकड़ीआं डाल दीं। कुछ ही देर में सब्जीआं काट ली गईं थी और जब तक प्याज़ अधरक और लसुन बगैरा भून गए थे। सारे मसाले और सब्जीआं कड़ाही में डाल दी गई थीं। एक बहुत बड़े खुरपे से सब्ज़िओं को मिक्स भी करने लगे। जब सब्ज़ी बन गई तो कड़ाही को भट्टी से उतार कर एक बड़ी तवी रख दी गई और रोटीआं बनाने लगे। रोटीआं बनाते वकत सभी बहुत हंस रहे थे क्योंकि रोटीआं बन नहीं रही थी। रसोइया सब कुछ बता रहा था लेकिन कभी पंजाब का नक्शा बन जाता, कभी इंडिया का। कई रोटीआं जल गई थीं लेकिन आखर में हमें कुछ कुछ आईडीआ होने लग गिया था।
एक टोकरा रोटिओं का भर गिया था. अँधेरा होने को था और दो गैस लैन्टर्न जला दिए गए क्योंकि वहां भी अभी बिजली नहीं आई थी। सभी लड़के फिर से गोल दायरा बना कर बैठ गए और रोटीआं सब्ज़ी सर्व होने लगी। सभी लड़के रोटीआं खा रहे थे, हंस रहे थे और बातें कर रहे थे। रोटी के बाद फिर सभी ने अपने अपने बर्तन साफ़ किये और हम को ९ बजे एक बहुत बड़े शामिआने के नीचे इकत्तर होने को कहा गिया। सभी लड़के अपने अपने टैंट में चले गए, अपना सामान दरुस्त किया और एक दूसरे से बातें करने लगे। ठीक ९ बजे हम शामिआने के नीचे इकठे हो गए। वहां एक स्टेज लगी हुई थी जिस पर कुछ कुर्सीआं रखी हुई थीं और एक पोल के साथ गैस लैन्टर्न लटकाई हुई थी। कैंप के ऑफिसर दो थे, एक राकेश कुमार और दूसरा था जोशी (पूरा नाम मुझे याद नहीं ). दूसरे दिन चीफ कैंप ऑफिसर और बीडीओ साहब आये थे जिन्होंने राकेश कुमार और जोशी जी को बहुत सी इंस्ट्रक्शंज़ दी थीं।
नीचे दरीआं विछी हुई थीं और हम दरिओं पर सुख आसन में बैठ गए। जोशी जी ने छोटा सा लैक्चर दिया और वोह सब कुछ बताया जो हमारा रोज़ का काम होना था। इस के बाद कुछ लड़कों ने गाने गाये और एक घंटे बाद सभी सोने के लिए चल पड़े। इसी तरह हम ने ९ बजे हर शाम को यहां आया करना था। बहुत रात तक हम बातें करते रहे और फिर सो गए। सुबह उठ कर सभी जंगल पानी के लिए खेतों को चले गए और कुएं पर इस्नान भी कर आये। अब फिर हम ने खाने के लिए कुछ बनाना था। चाय के लिए पानी का वल्टोह रख दिया गिया और पराठे बनाने को कहा गिया। दो लड़कों ने आटा गूँधा। रसोइया जो बता रहा था हम उसी तरह कर रहे थे। पराठों पर घी लगाने के लिए हमने एक नया आइडिआ ढून्ढ लिया था, एक दो फ़ीट लंबी सोटी के सिरे पर हम ने एक कपडा बाँध कर ब्रश सा बना लिया था जिस से पराठों को घी लगाना बहुत आसान हो गिया था। पहले कुछ कठनाई के बाद हमारा काम चालू हो गिया। जब पराठों का टोकरा भर गिया तो सभी लड़के आम के आचार और चाय के साथ पराठे खाने लगे। खा रहे थे और वाह वाह करके हंस भी रहे थे। कितना मज़ा था इन सब बातों में, यह बताना मुश्किल है।
सुबह का खाना खा कर हमें अपने अपने टोकरे और फावड़े उठाने को कहा गिया। यह सब ले कर हम उस ओर चल पड़े यहां से सड़क बननी शुरू होनी थी। कुछ अफसर, चीफ कैंप ऑफिसर और बीड़ीओ साहब, गाँव की पंचायत और एक पटवारी पहले से ही वहां खड़े थे। गाँव के लोग भी अपने अपने फावड़े और टोकरे ले कर आये हुए थे। जिन किसानों की ज़मीन थी वोह भी खड़े थे, वोह झगड़ रहे थे लेकिन हमें इससे कोई सरोकार नहीं था। पटवारी ने निशान लगाए और पहले गाँव वालों ने काम शुरू किया। फिर हमें दो-दो को अपने अपने हिस्से का एरिआ अलाट किया गिया जिस में से हम ने फावडे से मट्टी उखाड़ कर और टोकरे में डाल कर अपने साथी के सर पर रखनी थी और उस ने सड़क पर डालनी थी। अब यह काम शुरू हो गिया। ज़्यादा तर गाँव के लड़के ही थे और यह काम उन के लिए कोई नया नहीं था. जैसे जैसे काम होता जाता, गर्मी भी बढ़ती जाती और हम पसीने से भीग रहे थे। तकरीबन एक बजे हम को खत्म करने को कहा गिया और हम नहाने के लिए कुएं पर चले गए। नहा कर हम वापस कैंप में आ गए और ताश खेलने लगे, कोई पड़ने लगा, सभी मसरूफ हो गए। कैम्प ऑफिसर्ज ने अब हमें टाइम टेबल बना कर दिया, जिस में हर रोज़ पांच लड़कों ने सिर्फ खाना ही बनाना था और सड़क पर काम नहीं करना था। इस के बाद दूसरे दिन दूसरे पांच लड़कों ने खाना बनाना था। हर रोज़ सुबह को पांच लड़कों ने बाल्टीआं ले कर गाँव में जाया करना था और लोगों के घरों से दूध और लस्सी ले कर आया करना था। पहले दिन हमें कुछ अजीब सा लगा लेकिन जब हम किसी घर के दरवाज़े पर खड़े होते तो इस्त्रीआं खुद ही दूध और लस्सी के ग्लास भर के हमारी बालटीओं में डाल देतीं। इस तरह हम घर घर जाते और बाल्टीआं भरा कर हम कैम्प में ले आते। जिन पांच लड़कों की ड्यूटी खाना बनाने की होती थी वोह जी भर के सारा दिन दूध पीते रहते और बिस्कुट भी खाते रहते। कितना आनंद था इस कैंप में, अभी तक भूला नहीं।
चलता …
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिह जी। आज की क़िस्त में आपके स्कूली जीवन व कैंप में श्रमदान का रोचक व सराहनीय वर्णन हुआ है। आपने एयरपोर्ट का भी वर्णन किया है जहाँ लोग जल्दबाजी व अनुशासनहीनता कर रहे थे। इसमें कोई शक नहीं भारत का प्राचीन वैदिक धर्म, संस्कृति और सभ्यता संसार में सबसे ऊँची रही है व आज भी हैं। दुःख है कि वर्तमान में व आचरण में नहीं है। महर्षि ने उसके आचरण की बात की थी। आज की क़िस्त में २१ दिवसीय कैंप का जो सजीव वर्णन किया है वह अत्यंत प्रशंसनीय है। आपका हार्दिक धन्यवाद।
मनमोहन जी , आप का बहुत बहुत धन्यवाद . पंच वर्षय योजनाओं का असर उस वक्त दिख रहा था . सड़कों के बगैर जो उस समय गाँवों की हालत थी उस को वर्णन करना ही मुश्किल है . उस समय गाँवों को शहरों से मिलाने का काम शुरू हो चुक्का था और सकूलों के लड़कों को इस में अपना योगदान देने के लिए उत्साहात किया जाता था . आज तो पंजाब के सभी गाँव भी एक दुसरे गाँव से मिल गए हैं . हमारी प्राचीन सभियता को लोग भूल रहे हैं ,यह अच्छी बात नहीं है .
Dhanyawad Shradhey Mahoday. Apne apnee yuvavastha me desh aur samaj ke liye nihswarth bhav se jo pasina bahaya vah abhinandniya awam sukhad anubhuti hai. Mujhe lagta hai ki isse aapko ab bhee mansik sukh kee uplabdhi hoti hogi. Yeh achche karyon kaa daviya phal hai.
मनमोहन जी ,इस सड़क पर जो हमने काम किया है ,वोह अभी तक याद है और कभी कभी पुराने पेपर फोलते हैं तो इन पेपरों में पड़ा वोह भारत समाज सेवक कैंप का सर्टिफिकेट उन दिनों की याद दिला देता है . उस सड़क पर जाने का कभी अवसर नहीं मिला लेकिन पता चला था कि यह सड़क अब बहुत बिजी है और इस पे दुकाने बनी हुई हैं और बहुत रौनक है इस सड़क पर .
आपके शब्दों को पढ़कर बहुत अच्छा लग रहा है। बहुत बहुत धन्यवाद।
छोटी से छोटी बातें याद रखना
कमाल का यादाश्त है भाई जी
बहन जी , धन्यवाद , यह सभ भगवान् की ही कृपा है .
हा हा हा हा …. भाई साहब, आपके श्रम दान कैम्प का हाल पढ़कर मजा आ गया. हमने भी एक दो ऐसे कैम्पों में भाग लिया है, पर वे केवल एक एक दिन के थे.
विजय भाई ,यह कैंप तो एक सुनहरी याद है , जितना मज़ा किया ,उस को लिखना ही असंभव है .