कविता

मत जाओ दूर मेरे सखा

मत जाओ दूर मेरे सखा, निकट मम रहो;
कुछ मन की कहो, हिय की सुनो, चाहते रहो !
आत्मा में रहे पास सदा, दूर कब हुए;
अपने पराये भेद कभी, हम को ना छुए !
जो भी था रहा हृदये, तुरत तुम से कह दिए;
पाए तुम्हारी सीख, सफल जग में हम हुए !
पाए हुए हैं जो भी भाव, तुम्हारे दिए;
सूने पने में तुमरे बिना, कैसे हम जिए !
मिलवा दिए गुरू को, मिला बृह्म जो दिए;
दे प्रीति मीति अपनी व्यथा, उर में बस रहो !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा