खुल्ला
खुली जुबान आती जाती
बिन सोचे शब्दों के कमान
निकल गए लफ्ज़ों के तीर
खींच गयी थोड़ी
गुमशुम बैठी मन की तस्वीर
इन रास्तों पर क्यों चले
बिन चाभी के खुलते ताले
दरवाज़ो पर भीतर की कुण्डी
रिश्तों की ये कैसी गाँठ
खाली घर बिखरे सामान
उठा ले जाए आते मेहमान
रंगो की औकात न जानें
निकल पड़ी गुस्से की साथी
चीटी भागी थक गयी हाथी
खुली जुबान आती जाती ।
प्रशांत कुमार पार्थ
अतीव सुंदर सृजन”
सुंदर रचना