खरीदनी है एक ओढ़नी
सिक्के सिक्के जोड़ लिए हैं
गुल्लक हमने फोड़ दिए हैं
लगेगा मेरे गांव में मेला
रंगकर चुनरी तैयार किए हैं
चलो सखी मनमोहिनी
खरीदनी है एक ओढ़नी
जो ढ़क दे मनोभावनाएं
रेखांकित चित चोरनी
नए नए चेहरे बदलूंगी
जो जी में आए कर लूंगी
मूर्ख बने तो बने लोग
सीधे सीढ़ी मैं चढ़ लूँगी
समय के साथ मुझे चलना है
नित्य आगे ही बढ़ना है
हर चेहरे के जैसा मुझे भी
अपना मेकप बदलते रहना है
— किरण सिंह
बढ़िया कविता !
हार्दिक आभार