संस्मरण

दिव्य अनुभूति — एक सत्य लघु कथा

जीवन के किस मोड़ पर क्या घटना घटित हो जाये, इस पर मनुष्य का कोई बस नहीं चलता। 28/07/15 को अपने पति की द्वितीय पुण्य तिथि पर नितांत अकेली खड़ी उनके फोटो को निहार रही थी । आँखों में आँसुओं का समन्दर था जो अनवरत बह रहा था “क्यों इन मोतियों को लुटा रही हो बेटा ”
आवाज़ सुन कर पीछे मुड़ कर देखा तो कुछ साये सरसराते हुए निकल गये मानों मुझे रोते हुए देखने का साहस न जुटा पा रहे हों । कुछ धुंधला सा एक चेहरा अचानक मेरे सामने आकर खड़ा हो गया ।
“पहचाना नहीं ! आज 35 बरस बाद फिर आया हूँ, मत रो ” और मेरे बहते आँसुओं को अपने स्नेहिल हाथ से पोंछ दिया ।
“आप ! आज यहाँ ! ”
“हाँ आज मेरा बेटा अकेला है तो मुझसे रुका न गया और मैं तेरे पास चला आया, आज तो चाय पिलायेगी अपने चाचा को ”
“——–क्या चाचाजी ——आप —–हाँ अभी लाती हूँ ” और मैं धीरे से रसोई की ओर बढ़ गई ।
“एक गिलास पानी !!”
“अभी बस एक मिनट आप बैठिये ”
अचानक मुझे विचार आया कि वह कैसे आसकते हैं, पीछे मुड़ कर देखा, कोई नहीं था । मैं धम्म से कुर्सी पर बैठ गई । पुराना घटनाचक्र मेरी आँखों के सामने जीवंत हो उठा ।
21/01/1980 की ठंडी ठिठुरन भरी शाम जो मेरे जीवन की अमिट यादगार बन गई ।
‘ट्रिंग -ट्रिंग —-‘ सांझ के झुरमुटे में लगातार घंटी बजरही थी, ‘कौन होगा इस समय ?’ सोचते हुए गिरधारी को आवाज़ लगाई, फिर स्वयं ही अपने कमरे से बाहर आकर दरवाजे की तरफ बढ़ गई । दरवाजा खोलते ही जिस व्यक्ति पर नजर पड़ी, उन्हें देख कर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा ।
“चाचाजी ! आप!! ”
मुस्कराते हुए उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और अन्दर आ गये । उनको ड्राइंग रूम में बिठा कर मैं पानी लाई, और साथ बैठ कर बातें करने लगी। आवाज़ सुन कर मेरे पति के सहायक गिरधारी लाल अंदर आगये, वह मुझसे बोले, “मैडम आप ठीक तो हैं न?”
मुझे बड़ा अटपटा लगा “भैया ! हरि से चाय बनाने के लिए कहिये नई क्राकरी में लाने के लिए कह दीजिए, ”
वह फौरन बाहर गये तथा थोड़ी देर बाद घर में काफी लोग आगये, सब का एक ही सवाल ?
“लता !! तू ठीक तो है न ?” किसी ने पूछा
अरे… ! मुझे कुछ नहीं हुआ, मेरे चाचाजी आये हैं”
अब चाचाजी उठ कर खड़े हो गए, बोले “अब मैं चलता हूँ, देर हो रही है ” कहते हुए दरवाजे की ओर बढ़ गये। मैं उनको रोक रही थी, पर वह रुके नहीं और तेजी से बाहर आकर अँधेरे में गायब हो गए । मैं उनके पीछे भाग रही थी कि कुछ लोगों ने मुझे जोर से पकड़ कर झंझोड़ दिया।
“लता कोई नहीं है किससे बात कर रही हो ”
अब मैं सामान्य होचुकी थी, सचमुच कोई नहीं था। यूनिट का डाक्टर मेरा चैकअप कर रहा था । उसने मुझे एक इनजेक्शन लगा कर सुला दियाथा ।
सुबह जब मेरी आँख खुली, मैं ने दरवाजा खोल कर नीचे पड़े अखबार को उठाया और रोजाना की तरह पहले पृष्ठ पर पहले ही कालम में छपी एक खबर पर नज़र पड़ी ‘वरिष्ठ वकील आई पी सिंह की गोली मारकर हत्या ,’
चित्र पर नजर पड़ी वही चिरपरिचित मुस्कान, सफेद कमीज काला ओवरकोट, काला ब्रीफ केस. बस आगे न पढ़ सकी. कल का दृश्य आँखों के सामने घूम रहा था ।
आज फिर वही चलचित्र मेरी आँखों के सामने चल रहा था । मेरे चाचाजी की पुण्य स्मृति मेरे जीवन की अनुपम धरोहर है । वह एक प्रेरणा स्त्रोत थे तथा हमेशा रहेंगे । आज भी उनके आशीष भरे हाथ की छुअन मेरे मन को महसूस हो रही है ।
ये सारे घटनाक्रम हमारे कर्मों से जुड़े हुए होते हैं, जो जन्म-जन्मान्तर के अच्छे-बुरे कर्मों की प्रकृति के अनुरूप के हमारे कर्म-फल होते हैं, जिनको चाहे-अनचाहे भुगतना ही पड़ता है | यहाँ पर प्रत्येक जीव सृष्टि के विधान के सम्मुख नतमस्तक है |

लता यादव

अपने बारे में बताने लायक एसा कुछ भी नहीं । मध्यम वर्गीय परिवार में जनमी, बड़ी संतान, आकांक्षाओ का केंद्र बिन्दु । माता-पिता के दुर्घटना ग्रस्त होने के कारण उपचार, गृहकार्य एवं अपनी व दो भाइयों वएकबहन की पढ़ाई । बूढ़े दादाजी हम सबके रखवाले थे माता पिता दादाजी स्वयं काफी पढ़े लिखे थे, अतः घरमें पढ़़ाई का वातावरण था । मैंने विषम परिस्थितियों के बीच M.A.,B.Sc,L.T.किया लेखन का शौक पूरा न हो सका अब पति के देहावसान के बाद पुनः लिखना प्रारम्भ किया है । बस यही मेरी कहानी है

3 thoughts on “दिव्य अनुभूति — एक सत्य लघु कथा

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    सबकी अनूठी अनुभति होती है

  • विजय कुमार सिंघल

    यह अनुभूति आपके अवचेतन मन की कल्पना हो सकती है।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लघु कथा में बहुत कुछ कह दिया जिस में एक दर्द छिपा है .

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