आत्मकथा : एक नज़र पीछे की ओर (कड़ी 37)
दो नये अधिकारी – विकास और प्रेरणा
हमारे केन्द्र में सन् 2007 में दो नये अधिकारी आये। वे थे- श्री विकास ऐरी और श्रीमती प्रेरणा कश्यप। दोनों ने ही स्केल 2 में हमारे बैंक में सेवा शुरू की थी अर्थात् दोनों ही प्रबंधक (आईटी) बने थे। विकास जी नेटवर्क के अच्छे जानकार थे और सी.सी.एन.ए. डिग्री धारी थे, जिसका बहुत मान होता है। अगर वे चाहते, तो किसी भी बड़ी कम्पनी में सरलता से 20 लाख तक का पैकेज पा सकते थे। लेकिन पारिवारिक कारणों से वे अपने मूल स्थान चंडीगढ़ में ही रहना चाहते थे, इसलिए इलाहाबाद बैंक की नौकरी स्वीकार कर ली थी। उनका विवाह हो चुका था और एक बच्ची के पिता थे।
श्रीमती प्रेरणा कश्यप हिमाचल प्रदेश के नाहन नामक शहर की रहने वाली थीं और उन्होंने राँची (झारखंड) के श्री अनिमेश से प्रेम विवाह किया था। प्रेरणा ने बी.टेक. की डिग्री प्राप्त की थी और उसके बाद पर्यावरण के क्षेत्र में एम.एससी. तथा संकट प्रबंधन (डिजैस्टर मैनेजमेंट) में एम.फिल. उपाधि भी प्राप्त की थी। प्रेरणा देखने में अत्यन्त साधारण लगती थी- औसत भारतीय रंगरूप, औसत भारतीय चेहरा, औसत भारतीय कद-काठी, चश्मा लगाती थी और प्रायः पुराने सलवार-सूट पहनती थी। कुल मिलाकर देखने में एकदम मामूली, लेकिन वैसे वह काफी गुणी थी। वह लम्बी-लम्बी कविताएँ और लेख लिखा करती थी, उसे ताइक्वांडो की अच्छा अभ्यास था और उसका हिन्दी-अंग्रेजी दोनों का हस्तलेख बहुत सुन्दर था।
प्रारम्भ में जब प्रेरणा हमारे कार्यालय में आयी, तो बहुत कम बोलती थी। सबने समझा कि यह सीधी है और कम बोलनेवाली है, लेकिन एक-दो सप्ताह में ही स्पष्ट हो गया कि यह लड़की न तो सीधी है और न कम बोलने वाली, बल्कि घमंडी है और इसलिए नहीं बोलती कि किसी को अपने से बोलने लायक ही नहीं समझती थी। अगर बोलेगी भी तो एकदम तीर की तरह। इसका परिणाम यह हुआ कि शीघ्र ही सभी उसे नापसन्द करने लगे। जब मैंने उसके स्वभाव का विश्लेषण किया, तो उसका कारण मेरी समझ में आ गया। बात यह थी कि उसके पिता मैरीन इंजीनियर थे और साल में 10 महीने बाहर शिप पर रहते थे। घर में माँ का राज चलता था, जो कहीं टीचर थीं। प्रेरणा कुल तीन बहनें थीं और भाई कोई नहीं था। इसलिए घर में सारी महिलायें ही थी। शायद प्रारम्भ से ही उसे यह सीख दी गयी थी कि पुरुषों से दूर रहो और किसी पर भी विश्वास मत करो। ऐसी नकचढ़ी लड़की ने किसी बिहारी लड़के से प्रेम विवाह कैसे किया था, यही आश्चर्य की बात थी। लेकिन चचा गालिब कह गये हैं कि ‘इश्क पर जोर नहीं है, ये वो आग है गालिब, कि लगाये न लगे और बुझाये न बने’। प्रेरणा के पति अनिमेश जी किसी सरकारी नौकरी पर शिमला में पदस्थ थे। बाद में उन्होंने चंडीगढ़ में ही अपना स्थानांतरण करा लिया था।
प्रेरणा ने पंचकूला से सटे हुए लेकिन पंजाब में पड़ने वाले जीरकपुर कस्बे के एक मल्टी स्टोरी फ्लैट में अपना निवास बनाया था, जो किसी रिश्तेदार ने सस्ते किराये में दिलवा दिया था। वह टैम्पो से आती-जाती थी। रास्ते में रेलवे लाइन पड़ती थी। आते समय प्रायः फाटक बन्द मिलता था, जिससे लगभग रोज ही वह 10-15 मिनट और कभी-कभी इससे भी अधिक देर से आ पाती थी। लगभग रोज ही मेरे मोबाइल पर उसका यह सन्देश आता था- ‘सर, मैं रास्ते में हूँ, फाटक बन्द है, मुझे आने में देर हो जायेगी।’ हर बार मैं जबाब देता था- ‘ओके’। एक दिन इसी बात पर मैंने एक कविता (या तुकबन्दी) लिख मारी। इसे नीचे दे रहा हूँ, ताकि आप भी मजा ले सकें-
इन्तजार हो रहा है आॅफिस में
पलक पाँवड़े बिछाये बैठे हैं बाॅस
इधर मैं बैठी हूँ उपेक्षित सी टैम्पो में
क्योंकि बन्द है रेल का फाटक
दूर से गाड़ी आ रही है
सीटी बजा रही है
फाटक खुलेगा जब
टैम्पो चलेगा तब
तब तक इंतजार को हूँ मजबूर
पैदल भी नहीं जा सकती
क्योंकि आॅफिस है बहुत दूर।
इस कविता का मेरे आॅफिस के सभी अधिकारियों ने बहुत मजा लिया। एक दिन जब मैंने हिम्मत करके प्रेरणा को भी यह कविता सुना दी, तो वह बुरा मान गयी। उसकी यह आदत थी कि जरा-जरा सी बात का बुरा मान जाती थी। उसमें मजाक को मजाक में लेने की आदत अर्थात् ‘सेंस आॅफ ह्यूमर’ बिल्कुल नहीं था। मुस्कराना तो जैसे जानती ही नहीं और कभी हँसेगी भी तो मुँह दबाकर, जिससे कि किसी को उसकी हँसी की आवाज सुनायी न पड़े।
लेकिन वह काम बहुत अच्छा करती थी। वह अच्छा पढ़ाती थी। उसने मेरे साथ बैठकर संस्थान के पुस्तकालय को पूरी तरह व्यवस्थित कराया था तथा सभी काम मन लगाकर करती थी। परन्तु यह अवश्य चाहती थी कि सारे काम सारे अधिकारियों में बराबर-बराबर बाँटे जायें। कहने का तात्पर्य है कि उसकी मानसिकता बहुत कुछ बाबुओं जैसी थी। वह सभी पुरुष अधिकारियों से तो कटी-कटी रहती ही थी, महिला अधिकारियों से भी ज्यादा नहीं बोलती थी। पता नहीं क्यों, उसे शायद हमेशा ऐसा लगता था कि सभी लोग उसके खिलाफ षड्यंत्र कर रहे हैं। जबकि मैं उसे सामान्य करने की पूरी कोशिश करता था और उसे सभी कार्य उसकी सुविधा के अनुसार देता था।
फिर भी वह इतनी अन्तर्मुखी थी कि एक बार उसकी छोटी बहिन, जो इंजीनियरिंग कर चुकी थी और किसी कम्पनी में नौकरी शुरू करने हैदराबाद जा रही थी, जाने से पहले एक दिन हमारे संस्थान में आयी तो प्रेरणा ने किसी से भी उसका परिचय नहीं कराया। यहाँ तक कि उसे मेरे पास भी नहीं लायी, जबकि सभी अधिकारियों का यदि कोई भी रिश्तेदार या मित्र संस्थान में आता था, तो मेरे साथ उनका परिचय जरूर कराया जाता था। जब मुझे पता चला कि उसकी छोटी बहिन बाहर बैठी है, तो मैंने उसको गिफ्ट में देने के लिए प्रेरणा को एक अच्छा सा पेन दे दिया।
वैसे प्रेरणा बहुत भावुक भी थी। एक बार जब गौड़ साहब की विदाई हो रही थी, तो अपने विदाई भाषण में वह रोने लगी थी। ऐसा ही दूसरी बार तब हुआ जब तीन अधिकारियों की विदाई एक साथ हो रही थी। उसके स्वभाव की यह गुत्थी समझना कठिन है।
लखनऊ का मकान बेचना
अपने लखनऊ के मकान के बारे में मैं पीछे भी लिख चुका हूँ। एक के बाद एक तीन किरायेदारों के साथ कटु अनुभव होने के कारण हमने यह तय कर लिया था कि अब कोई किरायेदार नहीं रखेंगे और उसे खाली ही पड़ा रहने देंगे। ऐसा ही हमने किया भी। लेकिन हमें इसका ध्यान नहीं रहा कि कई गिद्ध इस मकान पर अपनी नजरें गढ़ाये होंगे। वहाँ आस-पास कोई ऐसा विश्वसनीय व्यक्ति नहीं था, जिसके भरोसे हम मकान छोड़ जाते। इसलिए उसे वैसे ही ताला लगाकर चले गये। हमारी अनुपस्थिति में उसमें अराजक तत्वों ने अपना अड्डा बना लिया था। पहले ताला टूटा, फिर नलों की टोंटी वगैरह खोल ले गये, फिर बिजली की फिटिंग तोड़कर फेंक दी और फिर दरवाजे-खिड़की भी या तो ले गये या तोड़कर फेंक दिये। अब उसमें केवल ईंटों का ढाँचा रह गया था। हाँ, चारों तरफ की बाउंडरी और मुख्य फाटक सुरक्षित था।
जब गोविन्द जी (श्री गोविन्द राम अग्रवाल) के बड़े पुत्र मनीष के विवाह के अवसर पर मैं लखनऊ आया, तो मकान की हालत देखकर दंग रह गया। मेरे पास इतना समय नहीं था कि वहाँ रहकर उसे ठीक करा लेता। इसलिए वह ऐसा ही पड़ा रहा। पंचकूला जाकर श्रीमती जी को बताया तो वे चिन्तित हुईं और उसे बेचने की राय देने लगीं। मुझे यह राय जँच गयी। मैंने सोचा कि यदि किसी दिन किसी राजनैतिक छुटभैये या गुंडे ने इस पर कब्जा कर लिया, तो मैं किस-किस से लडूँगा और कैसे। इससे तो अच्छा है कि बेचकर पैसे खड़े कर लिये जायें। यह सोचकर सबसे पहले तो मैंने बैंक का बकाया लोन चुकाया, जो कुछ ही हजार था। फिर मैंने मकान की रजिस्ट्री के कागज बैंक से वापस ले लिये, जो वाराणसी में ऋण लेते समय बैंक द्वारा बंधक रखवाये गये थे।
फिर हमने अपने परिचितों से मकान बेचने की इच्छा व्यक्त की। श्री गोविन्द जी ने कहा कि मैं अवश्य बिकवा दूँगा। अपने कथन के अनुसार उन्होंने एक व्यक्ति से बात कर ली और मकान हमने उसके हाथ बेच दिया। रजिस्ट्री वगैरह करने के लिए मुझे एक-दो बार श्रीमती जी के साथ लखनऊ जाना पड़ा था। इस प्रकार बेचने पर हालांकि हमें काफी घाटा पड़ा, लेकिन मकान की चिन्ता खत्म हुई, यही बड़ी बात थी। इसके बाद हमने आगरा में ही अपने एक रिश्तेदार का मकान खरीद लिया, जो भारी कर्ज के कारण उसे बेचने का मन बना चुके थे। हमें बेचने में उनको यह सुविधा थी कि जब तक हम आगरा में रहने के लिए नहीं आ जाते, तब तक वे उसमें रह सकते थे, हालांकि किराया देकर। अब क्योंकि आगरा के मकान की कीमत अधिक थी, इसलिए हमने अपने बैंक से फिर ऋण लिया और आगरा का मकान अपने नाम करा लिया। अब वह सुरक्षित है। हमारे वे रिश्तेदार अभी भी उसी में रह रहे हैं, लेकिन कुछ किराया भी दे रहे हैं।
आत्मकथ्य के दोनों प्रसंग अच्छे लगे। जिन परिस्थितियों में आपने लखनऊ का मकान बेचा, आगरा में दूसरा ख़रीदा तथा अब आप निश्चिन्त है, यह पढ़कर संतोष हुआ। आज की किश्त के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आभार मान्यवर !
विजय भाई , बैंक की बातें और मकान की बातें पडीं .मकान की बात पर मुझे इस बात से दुःख है कि भारत में किसी की प्रापर्टी सेफ नहीं लगती . बहुत से एनं आर आई इस मुसीबत को झेल रहे हैं और मुकदमों में फंसे हुए हैं . जबर्दास्ते कब्ज़े तो एन आर आयों से आम बात हैं किओंकि उन को पता है कि यह लोग ज़िआदा समय भारत में रह नहीं सकते . इसी लिए बहुत से लोग तो अब बेच भी रहे हैं .
सही कहा, भाईसाहब ! भारत में सरकारी और प्राइवेट सम्पत्तियों पर क़ब्ज़ा करने वाले बहुत हैं। कानून की कमी के कारण इसको रोकना कठिन है।
दो अनुभव दोनों प्रेरक की अभिव्यक्ति बेहद खूबसूरती से
बहुत बहुत आभार, बहिन जी !