समय का चक्र
समय का चक्र
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अभिमान से सर उठता था
वो आते शीश झुकाकर
कैसा तेरा परिवर्तन
हे समय के चक्र
दोस्त छूटे या दुश्मन
नहीं देखते तुम पीछे मुड़कर
रास्ते कठिन हों या सरल
तू चलता है निरन्तर
किसी का खाक से उठना
किसी का खाक मे मिलना
तय करता है तू ही
मुरझाना और खिलना
विश्वास करें तो कैसे
तू कब हुआ किसी का
करते नित्य नए कृत्य
तू नृप है निज मन का
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©कॉपीराइट किरण सिंह