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प्राकृतिक आपदाएँ : हम बुलाएँ या खुद चलकर आएँ

परिचर्चा

प्राकृतिक आपदाएँ : हम बुलाएँ या खुद चलकर आएँ

पर्यावरण – आ बैल मुझे मार

हमारी भारतीय परम्परा का उद्घोष रहा है कि –“यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे” | यानी जिन पांच तत्वों से जिस किसी जीवधारियों के शरीर का निर्माण हुआ है उन्हीं पांच तत्वों से सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण हुआ है | दूसरे शब्दों में – जो जीव के शरीर में हैं वही सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है | यानी उस चैतन्यता की व्यापकता |

जिस तरह मनुष्य अपने सपरिवार की कुशलता एवं सुरक्षा के लिए किलेनुमा घर का निर्माण ईंट, गारे, सीमेंट, सरिया आदि से करता है उसी तरह प्रकृति भी शरीर और सृष्टि का निर्माण मिट्टी, हवा, पानीं, अग्नि और आकाश रुपी पांच तत्त्वों से करती है |

एक नजर खुद के शरीर पर ही डालें तो स्पष्ट हो जायगा कि शरीर का मांसल भाग जहाँ मिट्टी है वहीं लार, रक्त, मूत्र आदि जलीय अंश | जहाँ शरीर का तापमान स्व-परीक्षित है जैसे रक्त की गर्मी, पाचन तन्त्र में जठराग्नि के साथ आकाश (खाली जगह) है तब ही तो हवा का प्रवेश (सांस) सम्भव है |

किसी भी जीव को इन्हीं पांच तत्वों की आवश्यकता होती है जीवन जीने के लिए, जो प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध भी है | इन्हीं पांच तत्वों से निर्मित प्रकृति का ही दूसरा नाम पर्यावरण भी है |

पर्यावरण किसी एक तत्व विशेष से निर्देशित या मान्य नहीं है | जिसमें पाँचों तत्व अनुपातिक रूप से समाहित हो उसे ही पर्यावरण की संज्ञा दी जा सकती है |

पर्यावरण दो शब्दों का युग्म है परि+आवरण=पर्यावरण | इसी आवरण से आच्छादित है पूरी की पूरी पृथ्वी और पृथ्वी पर बसनेवाले सभी मनुष्य, पशु-पक्षी, वनस्पति से जीवाणु पर्यन्त | दूसरे शब्दों में – जलचर, नभचर और थलचर सभी उपभोक्ता हैं |

इन सभी उपभोक्ताओं में अतिविशिष्ट स्थान प्राप्त भौतिक सुविधाभोगी मनुष्य जाति सर्वोपरि माना जाता है | मनुष्य विकास और अधिक सुविधा-सम्पन्न होने के लिए विकास के नाम पर खनिज सम्पदा, जल सम्पदा आदि का भरपूर मनोनुकूल दोहन कर एक बाजार का निर्माण ही नहीं कर रहा बल्कि अर्थोपार्जन को ही श्रेष्ठ आर्थिक आधार बना चुका है |

मिटटी खोदकर बने ईंटों से अट्टालिका बनाने में पानी-लोहे जैसी और भी खनिज सम्पदा का प्रयोग धडल्ले से धरती की ही छाती पर किया जा रहा है, सच मानिए – जितनी ऊंची अट्टालिका उतनी ही खोखली धरती |

जिस तरह शारीरिक रोगों की उत्पत्ति के लिए आयुर्वेदीय सिद्धांत के आधार पर वात, पित्त और कफ के असंतुलन को ही उपादान कारण माना जता है, वैसे ही प्रकृतिजन्य पर्यावरण के पांच तत्वों का अनुपातिक संतुलन भी आवश्यक है | जो वर्तमान में आहिस्ते-आहिस्ते असंतुलन की स्थिति को प्राप्त हो रहा है जिसके फलस्वरूप – असमय अनावृष्टि, अतिवृष्टि, आंधी-तूफ़ान, बढ़ते तापमान और भूकम्प से त्रस्त सारे जीव-जन्तु स्पष्ट दृष्टिगत है | इतना ही नहीं उच्च तापमान के कारण ग्लेशियरों के पिघलने क्रम अनवरत रूप से जारी है, जो जल रूप में समुद्र का बढ़ता भयावह स्वरूप सुनामी मानवता ही नहीं आधुनिक विकास को भी लीलने को तत्पर है |

दुर्भाग्यवश, उपभोक्ताओं को बाजार मान भौतिक सुविधाजन्य उपक्रमों को परोसकर मात्र अर्थ की महत्ता को स्वीकृतिपरक परिस्थितियों में ला खड़ा करने की अमानवीय प्रवृत्ति ने, जो बीजारोपण करने की प्रक्रिया, सदियों पूर्व अनवरत रूप से जारी है, वह अब कंटीले फलदार वृक्ष में परिणत हो रहा है और यह क्रम मानवीय विनाश की खाई की ओर खींचे जा रहा है |

कहीं अकल्पनीय भू-कम्प, भू-स्खलन और सुनामी जैसी भयावह परिस्थितियों से निबटने में आधुनिक विज्ञान कहां तक सक्षम है, यह स्वत: सिद्ध हो चुका है | प्रकृति के पर्यावरणीय परिवर्तन के आगे बेशक विज्ञान अपनी पीठ थपथपा ले पर, सच्चाई तो यही है कि विज्ञान अंतत: बौना ही साबित हुआ है |

विज्ञान, सुख-सुविधा के निमित्त चाहे जितनी भी साग्रियाँ एकत्र कर ले मगर, प्रकृति ने हर बार आधुनिक सुविधाजन्य उपभोक्ता सामग्रियों को मात्र कबाड़ ही ठहराया है |

अरबों-खरबों के लागत से निर्मित अत्याधुनिक वायुयान वायुवेग के आगे पेड़ से टूटे पत्ते की तरह या यूँ कहें कि परकटे पक्षी के जैसे पृथ्वी के गोद में बिखर जाता है | साथ ही सुविधाभोगियों के अरमानों को बिखेर जाता है |

वर्तमान में जिस कदर बेहयाई से प्राकृतिक सम्पदा का दोहन अनवरत और अकल्पनीय रूप से जारी है, वह तो सृष्टि के विनाश को ही सम्पोषित नहीं करता बल्कि असंतुलित भी करता है |

उदाहरण के तौर पर “जल के बिना जीवन सूना” और “जल ही जीवन है” को ही लें तो स्पष्ट हो जायगा कि विश्व की जितनी भी सभ्यताएं विकसित हुई है सभी नदियों के किनारे ही हुई हैं |

भोजन के वगैर आदमी कुछ दिनों तक ज़िंदा रह सकता है, जल के वगैर कुछ घंटे और हवा के वगैर तो कुछ सेकेण्ड ही | कहने का तात्पर्य कि प्रकृति में जिन्दा बने रहने के लिए जिसकी जितनी जरूरत वह उतनी ही नि:शुल्कता से उपलब्ध |

पर, आज का आधुनिक विकसित मानव औद्यौगिकरण के नाम पर दोहन के साथ पर्यावरण को दूषित ही नहीं विषाक्त बनाता जा रहा है और शुद्धता के नाम पर व्यापार |

आज पानी का ये हाल है जहाँ लोगों को पीने के लिए स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है, वहीं शीतल-पेय व्यापार में करोड़ों गैलन पानी रोज बर्बाद किया जा रहा है | दूसरी ओर टूथपेस्ट, साबुन और डिटर्जेंट में जीवन नाशक “लायल सल्फेट” की उपलब्ध उपस्थिति से प्रत्येक घरों में पानी की खपत अत्यधिक बढ़ गयी है, जो विचारणीय है |

अभी से वायुमंडलीय स्थिति तो इतनी भयावह होती जा रही है कि महानगरों में लोगों ने मास्क लगाना आरम्भ कर दिया है | फिर भी लोग अपनी भावी सन्तति के प्रति कितने उदासीन हैं कि पर्यावरण को और भी अधिक विषाक्त बनाने से बाज नहीं आ रहे | कल तक जो पैदल और सायकिल की सवारी करते थे वे आज बड़े-बड़े वाहनों की सवारी कर वायुमंडल को प्रदूषित करने में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं | जहाँ एक ओर उद्योगों द्वारा ऊर्जा के नाम पर पेट्रोल-डीजल के प्रयोग से वायुमंडल प्रदूषित हो रहा है वहीं औद्योगिक कचरा नदियों में प्रवाहित कर जल प्रदूषित कर रहे हैं |

इतना ही नहीं, अधिक अन्न उत्पादन के नाम पर भोज्य पदार्थों में भी विषयुक्त खाद-बीज के साथ फसलों की सुरक्षा के नाम पर रसायनिक दवाओं का छिडकाव भी धडल्ले से किया जा रहा हैं | आधुनिक आदमी की आर्थिक लोलुपता तो आग में घी की तरह फलों सब्जियों में जहरीले रसायनिकों की सुई चुभोकर मानवता को ही आईना दिखाये जा रहे हैं | इस आधुनिकता की दौड़ में तथाकथित विकसित मानव ने “जीयो और जीने दो” के सिद्धांत को भुला ही दिया है |

खासकर भारत, उस षड्यंत्र का शिकार हो रहा है जहाँ से पश्चिमी देशों के आर्थिक स्वास्थ्य को खाद-पानी और टानिक उपलब्ध कराने में हमारे देश का नेतृत्त्व कहीं से भी पीछे नहीं रहा | यहाँ यह कहना अनुचित नहीं होगा कि – हमारा पड़ोसी देश चीन ही नहीं कई देश अपनी सम्पदा का उपयोग हमेशा से अपने हित में करता आया, जिसके फलस्वरूप आज विश्व के सामने चुनौती बनकर खड़ा है |

ऐसी परिस्थितियों में पर्यावरण के साथ और कितना खिलवाड़ करना चाहेगा आज का आधुनिक विकसित मानव ? क्या तबतक, जबतक कि वसुधा जीव विहीन न हो जाय |

आज हर किसी को अपनी भावी सन्तति के लिए पुन: विचार कर निर्णय लेने की आवश्यकता आन पड़ी है | हमें विकास के नाम पर प्रयुक्त होनेवाले उपभोक्ता सामग्रियों के प्रयोग को निरुत्साहित करना ही होगा | तब ही पर्यावरण की संतुलित अवस्था में जीवन सम्भव हो सकेगा |

इन सारे परिपेक्ष्य में स्वयं निर्णीत है कि – प्राकृतिक आपदाएँ – हम बुलाते है या आपदाएँ स्वयं चलकर आते हैं |

जय प्रकृति – जय पर्यावरण |

— श्याम “स्नेही” शास्त्री

श्याम स्नेही

श्री श्याम "स्नेही" हिंदी के कई सम्मानों से विभुषित हो चुके हैं| हरियाणा हिंदी सेवी सम्मान और फणीश्वर नाथ रेणु सम्मान के अलावे और भी कई सम्मानों के अलावे देश के कई प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुति से प्रतिष्ठा अर्जित की है अध्यात्म, राष्ट्र प्रेम और वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर इनकी पैनी नजर से लेख और कई कविताएँ प्रकाशित हो चुकी है | 502/से-10ए, गुरुग्राम, हरियाणा। 9990745436 ईमेल[email protected]